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सोरठा
चारण कवि माणेक थार्या जसाणी
कोइ हसी कोइ रोइ
लइ लाखो मनोरथो
सुइ जाता सौ कोइ
मोत निंदरमां माणका
मननुं धार्यु मोइ
पूरुं नव कोइनुं थतुं
सूइ जाता सौ कोइ
मूकी अधूरु माणका
करीने सारा काम
जश कमावो जगत मां
मत करो बदनाम
माता पिता ने माणका
रटे न मुखथी राम
हटे न हैयुं हरामथी
कटे न मननो काम
मटे न पीडा माणका
📝 हरि गढवी ववार कच्छ
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