तनोट माता का मंदिर, तनोट
(माँ हिंगलाज का आवड़ माता के रूप में अवतार)
(तनोट की माँ आवड़ माता की अनेक लिलाये...)
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राजस्थान के जैलसमेर में बॉर्डर पर स्थित तनोट माता का मंदिर |
आज मैं बताने जा रहा हूँ कि माँ आवड़ ने आगे चलकर किस प्रकार, तनोट माता, तनोट “आवङ माता” के रूप मेँ विक्रम संवत 828 ईस्वी में, आवड़ माता ने अपने भौतिक शरीर के रहते हुए यहाँ ,अपनी स्थापना की। और फिर माँ “आवङमाता” के रुप मे अनेक लिलाये दिखाते हुये .... “आवङ माता” ने तणुराव के पौत्र देवराज, सिद्ध, भक्तों, ब्राह्मणों, चारणों,राजपूतों और माड़ प्रदेश के अन्य लोगों को बुलाकर, अपना अवतार लेने का उद्देश्य पूर्ण हुआ बताकर, सभी बहनों के साथ पश्चिम में हिंगलाज माता की ओर देखते हुए अदृश्य हो गईं।
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तनोट माता की मुख्य मूर्ति। |
तनोट माता का सिद्ध मंदिर जैसलमेर से 130 किमी.दूर भारत पाक सीमा के पास थार के रेगिस्तान में स्थित है। जिला जैसलमेर (राजस्थान) किशनगढ़ क्षेत्र के गांव तनोट में तनोट माता के मंदिर माता तनोट राय (माँ आवड़ माता) का मंदिर है। तनोट माता को देवी हिंगलाज माता का एक रूप माना जाता है। हिंगलाज माता शक्तिपीठ वर्तमान में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के लासवेला जिले में स्थित है।
इतिहास:
मामडि़या नाम के एक चारण थे। मामड़जी जी निपुतियां थे उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्त करने की लालसा में उन्होंने हिंगलाज शक्तिपीठ की सात बार पैदल यात्रा की थी ।
एक बार अपने घर से कहीबहार जा रहे थे। उस समय चारण जाति की कन्याए जो सामने से जा रही थी,उन कन्याओ ने मामड़जी को देख रास्ते मे अपूठी खड़ी हो।गई क्योकि सुबह के समय निपुतियें व्यक्ति का कोई मुह देखना नही चाहता। इस बात का रहस्य मामड़जी को समझ मे आ गया, वह दुखी होकर वापिस घर आ गए। मामड़जी के घर पर आदि शक्ति हिंगलाजका एक छोटा सा मन्दिर था, वहा पुत्र कामना से अनशन धारण कर सात दिन तक बिना आहार मैया की मूर्ति के आगे बेठे रहे।
आठवे दिन उन्होंने दुखी होकर अपना शरीर त्यागने के लिए हाथ मे कटारी लेकर ज्युहीं मरनेलगे उसी समय शिव अर्धांगनी जगत जननी गवराजा (हिंगलाज) प्रसन्न हुई, उन्होंने कहा - तुने सात दिन अनशन व्रत रखा हे, इसलिए मे सात रूपों मे तुम्हारे घर पुत्री रूपों मे अवतार धारण करुगी और आठवे रूप मे, भाई भैरव को प्रगट करुँगी, तुम्हे मरने की कोई आवश्यकता नही हे,इतना कह कर मातेश्वरी अंतरध्यान हो गई।
माता कि कृपा से चारण के यहाँ 7 पुत्रियों और एक पुत्र ने जन्म लिया।
देवी हिंगलाज माता सूर्य से भी अधिक तेजस्वी है और स्वेच्छा से अवतार धारण करती है। इस आदि शक्ति ने 8वीं शताब्दी में सिंध प्रान्त में मामड़ (मम्मट) के घर में आवड देवी के रूप में द्वितीय अवतार धारण किया था । ये सात बहिने थी-
1-आवड, आवड बाई
2-गुलो- गेल,(गुलीगुलाब बाई)
3-हुली –होल,हुल(हुलास बाई)
4-रेप्यली-रेपल,रेपली(रूपल बाई )
5-आछो- साँची,साचाई (साँच बाई )
6-चंचिक - राजू,रागली (रंग बाई) और
7-लध्वी- लंगी, खोड़ियार (लघु बाई) सबसे छोटी, आदि नामों से सातों बहनों कर जन्म हुवा।
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तनोट माता की मुख्य मूर्ति। |
उन्हीं सात पुत्रियों में से एक आवड़ ने विक्रम संवत 808 में चारण के यहाँ जन्म लिया और अपने चमत्कार दिखाना शुरू किया। सातों पुत्रियाँ देवीय चमत्कारों से युक्त थी।जिसमे महामाया आवड़ व सबसे छोटी लघु बाई ,खोड़ियार सर्वकला युक्त शक्तियाँ का अवतार बताया गया है। इस प्रकार आठवे रूप मे भाई का जन्म बताया गया,जिसका, नाम मेहरखा था।
मातेश्वरी आवड़ का जन्म स्थान–
मातेश्वरी आवड़ का जन्म स्थान रोहिशाला ग्राम में (चेलक नामक स्थान) बलवीपुर, जिला सौराष्ट्र, कच्छ प्रान्त (गुजरात), बताया गया हैं। उस समय रोहिशाला ग्राम का अन्तिम राजा शिलादिव्य था।
आवड जी ने चेलक नामक ग्राम में, मामड जी के घर बहूत एक पुराने, जाल नामक वृक्ष का रोपण किया –
आवड जी ने चेलक नामक ग्राम में मामड जी के घर एक जाल नामक बहूत पुराना वृक्ष का रोपण किया, जो बहूत पुराना वृक्ष था, जिसकी शीतल छाया में गरीबो भक्तो की रखवाली करने और चारण जाती के पुराने भक्त को सुख पहुचाने चेलक ग्राम में प्रगट हुयी, यह ग्राम उस जगह हैं, जहा हमेशा "मोहिला" यानि दयालु मनुष्य रहते हैं। उस स्थान का इशारा गुजरात की तरफ़ ही हैं। इस प्रकार वहा की लोग मैया की जय जयकार कर रहे है। और मैया का प्रत्येक कमजोर प्राणी की रक्षा करती है।
महामाया आवड़जी का सिंध प्रान्त नानणगढ़ (पाकिस्तान) पहुच कर, भगत सेठ कुशल शाह को अपना अलोलिक रूप दिखा कर, “मुनि कुशल” सूरी के साथ वणिक (सेठ कुशल शाह) परिवार की कन्याओ को माड़ प्रदेश भेज दिया, और वहा शासक “अमर सुमरा” व उस के पुत्र “नुरन” का सर्वनाश कर, माड़ प्रदेश मे प्रस्थान-
कुछ समय पश्चात सिंध प्रान्त नानणगढ़ (पाकिस्तान) जहा हिंदू शासक, हमीर राज्य करता था।
उस समय अरब के सम्राट (यवन बादशाह) मोहम्मद कासम ने राजा हमीर पर धर्म परिवर्तन करने का अनैतिक दबाव डाला। हमीर ने बादशाह की गुलामी स्वीकार करते हुवे अपना नाम बदलकर “अमर सुमरा” रख लीया था।“ इसप्रकार हिंदूशासक हमीर का जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कराया गया था। हमीर से “अमर सुमरा” बनके उस ने अपनी प्रजा पर धर्म परिवर्तन करने का अनैतिक दबाव डाला।
इस प्रान्त मे चारण जाति के जाति के साथ अनेक ग्राम थे, उन्होंने धर्म परिवर्तन का विरोध किया, इससे कुपित होकर “अमर सुमरा” ने चारणों पर अत्याचार करने लगा। तब अनेक चारण परिवार सिंध प्रान्त छोड़कर,सौराष्ट्र प्रान्त की तरफ़ चल दिए।
सिंध प्रान्त से आये हुवे चारण जाति व अन्य आर्य जाति के लोगो ने मातेश्वरी आवड़ा माता के सामने खङे होकर विनती की,“अमर सुमरा” शाशक के कुकर्म व अत्याचार का का वर्णन किया। इस घटना से आवड़ा माता को दुख हूआ और दुख दूर करने के लिए,आवड़ा माता ने सौराष्ट्र प्रान्त छोड़कर,परिवार सहित मवेशी लेकर सिंध प्रान्त नानणगढ़ (पाकिस्तान) में (की तरफ़)प्रस्थान किया।
सिंध प्रान्त नानणगढ़ (पाकिस्तान) पहुच कर वहा पर वणिक (जो एक जाती से बणिया था) जाति के भगत सेठ कुशल शाह का परिवार रहता था। उनकी दो पुत्रिया बहूत सुंदर थी, उस ग्राम में सुमरा जाति के लोक रहते थे। उनकी नियत ख़राब हो गई थी,वह उन कन्याओ से जबरदस्ती ब्याव करना चाहते थे। कहते हैं जब भगत वणिको को मलेच्छो से बहूत डर लगने से वे मन में बड़े व्याकुल होने लगे थे।
तब मातेश्वरी का, वहा भगत परिवार हितार्थ पहुच कर उन दृष्ट से वणिक परिवार को मुक्त कराया और उन कन्याओ को “मुनि कुशल” सूरी के साथ माड़ प्रदेश भेज दिया। उस मुनि का धाम आज भी “वैशाखी तीर्थ” है,जहा जैन जाति के वणिक बड़े मन से पूजा करते हैं।
तब मैया ने उन्हें अपना अलोलिक रूप दिखाया जिसमे मैया सिंह पर विराजमान थी। सिर पर मुकुट धारण किया हुवा था, देखने में न बालिका थी न बुढिया थी। इस अलोकिक रूप को देखकर वणिक हर्षित हुवे और महामाया की शरण ग्रहण की।
“अमर सुमरा” के सेवक हजामती (जो एक जाती से नाई था) ने जाकर सुमरा शासक से वृतांत सुनाया लेकिन शासक “अमर सुमरा” चारण जाति की शक्तियों से डरता था। उसने उन दृष्टो की बात को अन सुना कर दिया तब उसने शासक के पुत्र को उकसाया, की उक्त चारण ने ही वैश्य कन्याओ को माड़ प्रदेश भेज देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जिन वैश्य कन्याओ कोआप पाना चाहते हैं।
हमें तो कुछ भी नही मिला लेकिन तुम अगर चाहो तो इस चारण परिवार की सभी पुत्री इतनी सुंदर हैं, इन जैसी हमने आज तक संसार में नही देखी! वह दृष्ट “अमर सुमरा” (शुमरो) का पुत्र “नुरन” उन चाटुकारों की बातो को सुनकर मन में मोहित होकर सोचने लगा। तभी उसका सेवक हजामती ने भी मातेश्वरी के रूप लावण्य की प्रशंसा करने लगा और कहने लगा आप बादशाह के युवराज है, आपके लायक यह चारण पुत्री हे तब तो यह बात सुनते ही, उन्हें पाने के लिये आतुर हो गया और तुंरत मामड़जी से अपनी बड़ी पुत्री महामाया आवड़जी का ब्याह करने का प्रस्ताव रखा । और कहा कि मना करने पर, आवड़जी के पिता मामड़जी को कैद करने की धमकी दी ।
तब मामड़जी ने दुखी होकर उन्हें दो दिन बाद जवाब देने को कहा, वापिस घर आये , पिता की परेशानी का आभास हो गया,मैया ने पिता से कहा आप को कोई चिंता करने की जरुरत नही हे।
कल बादशाह के दरबार में आपके साथ चलुगी , उसे समझा देंगे , शायद वह मन जायेगा, दुसरे दिन पिता के साथ आवड देवी सुमरे शासक के दरबार में पहुची, सभी दरबारियों और बादशाह के सामने बड़ी उच्च गर्जना करते हुवे कहा; शासक तेरे पुत्र ने जो अधर्म पूर्वक प्रस्ताव रखा हे वह अन्याय पूर्ण हे हम आपकी रियासत में रहते हे, यहाँ का अन्न जल ग्रहण किया है,तुम एक समझदार सम्राट हो अपने पुत्र को समझा देना, अन्यथा मेरे श्राप से तुम्हारा समूल वंश नष्ट हो जायेगा।
इतना कहकर देवी अपने निवास पधार गयी।
कहते हैं कि अब सातों बहिनों ने मातेश्वरी आवड जी के आदेश से विचार करते हुए अपने परिवार का यहाँ रहना ठीक न समझकर रात्रि में ही माड़ प्रदेश को गमन किया।
बीच रास्ते में एक अथाह हाकड़ा नामक समुन्द्र था।
उसने अथाह जल था कही से भी पार होने का रास्ता न देखकर मैया ने समुन्द्र को मार्ग देने को कहा, लेकिन होनी बड़ी प्रबल होती हे।मैया की लीला वो जाने ,समुन्द्र मार्ग देना तो दूर रहा , वह तो पहले से दुगने घमंड वेग से उची उची हिलोरे मारने लगा,तब मातेश्वरी के क्रोध की सीमा नही रही , उन्होंने अपनी हाथ की अंगुली से स्पर्श करते हे पुरा अथाह समुन्द्र रेगिस्तान में बदल दिया।
धन्य हे मैया की अदभुत लीला।
कहते हैं कि जब चारण परिवार रात्रि को रवाना हो गया तो उन दृष्टो मलेच्छो की बुद्धि भ्रमित हो गयी और सोचने लगे उक्त चारण लड़कियों कोई अवतार वगेरा नही हैं, अगर ऐसा होता तो यू ही रात को थोड़े ही भागती, इस प्रकार उन लोगो में अत्यंत दूषित भावना भर गयी और सारे लोग घोडों पर बैठकर मैया के पुरे परिवार को पकड़ने समुन्द्र के किनारे पहुच गये।
तब तक मैया आवड जी ने हाकडा समुन्द्र के जल को शोषण कर लिया (डकार लिया) था, जब उन दृष्टो को आया देखा तो; मैया को इतना क्रोध आया, जिस प्रकार श्री राम ने जनक के शिव धनुष के टुकड़े किए थे, या जैसे चंड मुंड आदि दृष्टो का संघार किया था, या कपिल मुनि ने जिस प्रकार सागर पुत्रो को भस्म किया था, ऐसा क्रोध करते हुवे मैया ने उनका सर्वनाश कर, आवड जी ने माड़ प्रदेश मे प्रस्थान किया।
सिंध से माड़ प्रदेश मे प्रस्थान कर तेमडा पर्वत पर ”हूण सेना नायक तेमड़ा नमक असुर” राक्षस को मार अपना आसन “तेमडा पर्वत” पर जमा लिया और तेमडेजी (तेमडे राय) भी कह लायी, जहा जैसलमेर घराने के पूर्व कृष्ण वंशी राजा तणू की राजधानी जैसलमेर से तणोट कर उन्हें आशीर्वाद दिया, और वहा पंजाब प्रदेश के शासक लाखियार जाम व जैसलमेर घराने के राजा तणू दोनों नरेशों की आपसी टकराहट रुकवाते हुवे भक्तो के हितार्थ अनेक लिलाए करने लगी
कहते हैं कि देवियाँ सिंध से तेमडा पर्वत पर आ गईं। तब छ:(छह) देवियोँ ने “तेमडा पर्वत” को अपना निवास स्थान बनाया था। कहते हैं कि हे महामाया आवड जी ने हुण असुरो की भारी सेना को देखा, तब मातेश्वरी ने शरीर पर बगतर धारण किए सिधुवे राग का उचारण होने लगा, हुणों की सेना को कटार द्वारा धराशाही करने से खून की नदिया चलने लगी और हुणों की सेना का सफाया होने लगा।
जब हुणों और महामाया आवड जी में युद्ध हो रहा था तब बड़ी भयंकर ध्वनी सुनाई दे रही थी, अनेको मातेश्वरी के अग्रग्रामी भैरव प्रगट हो गए, हुणों की सेना का नाश हो गया, सिंह पर आरूढ़ होकर हाथ में चक्र लेकर मैया आवड जी अट्टहास करने लगी, ‘हूण सेना नायक तेमड़ा नमक असुर” भागने लगा।
जब तेमड़ा असुर भागने लगा तो मातेश्वरी आवड जी ने अपना अनेक भुजावो वाला विकराल कालका रुपी शरीर धारण कर, सिंह पर बैठी हुवी अपने भाले से दृष्ट “तेमड़ा नमक असुर” को दबोच लिया और एक पहाड़ की गुफा में डालकर यही आवड जी ने तेमडा नाम के राक्षस को मारा था, अत: इन्हे तेमडेजी भी कहते है। सातों बहिनों ने अपना आसन “तेमडा पर्वत” पर जमा लिया,उक्त स्थान को आज तेमडे राय नाम से जाना जाता हे। आवड जी का मुख्य स्थान जैसलमेर से बीस मील दूर एक पहाडी पर बना है।
कहते हैं कि, मैया आवड जी ने जब हिंगलाज धाम गमन किया तो माड़ प्रदेश के राजा देवराज ने तेमड़ा नामक स्थान (पर्वत) पर मन्दिर बनाया व सात रूपों में पत्थर की मूर्ति स्थापित करवाई व उक्त चित्र अंकित करवाये, भक्त जन पूजा अर्चना करने लगे, शुक्ल पक्ष की सातम को बड़ा भारी मेला लगता हे प्रत्येक मास की में अनेको यात्री दर्शन की लिए आते हैं।
देवी आवड जी की एक बहिन काठियावाड़ के दक्षिण पर्वतीय प्रदेश में 'तांतणियादरा' नामक नाले के ऊपर अपना स्थान बनाकर रहने लगी। यह देवी भावनगर कि कुलदेवी मानी जाती हैं, ओर समस्त काठियावाड़ में भक्ति भाव से इसकी पूजा होती है।
तब इनके दर्शनाथ अनेक चारणों का आवागमन इनके स्थान कि और निरंतर होने लगा और इनके दर्शनाथ हेतु लोग समय पाकर यही राजस्थान में ही बस गए। वर्तमान में माड़ प्रदेश में रहेनेवाली चारण जातियों में प्रमुख बारहट, रतनु आदि शाखाओ का उदय आवड जी के समय के बाद हुवा है।
जैसलमेर घराने के महाराजा तणु को तणोट स्थान पर दर्शन देकर तनोट माता
जैसलमेर घराने के पूर्व कृष्ण वंशी हिंदू राजा तणू की राजधानी जैसलमेर से तणोट कर प्रजा में सुख चैन करने के लिये, अनेकोदूष्टोँ और वन मनुष्यों का संहार किया उन्हें आशीर्वाद दिया, और महामाया के आवागमन से माड़ भूमि धन्य हो गयी, उन्होंने हूणों के आक्रमण से माड़ प्रदेश की रक्षा की। माड़ प्रदेश में आवड़ माता की कृपा से भाटी राजपूतों का सुदृढ़ राज्य स्थापित हो गया। राजा तणुराव भाटी ने तणोट स्थान को अपनी राजधानी बनाया और आवड़ माता को स्वर्ण सिंहासन भेंट किया।
महामाया पंजाब प्रदेश के शाशक लाखियार जाम को दर्शन देने पधारी-
पंजाब प्रदेश का के शासक लाखियार जाम आवड़ा माता का भगत था।
लाखियार जाम माड़ प्रदेश के, राजालणु को अपने राजधानी अधिकार मे करना चाहता था।
मगर वह स्थान राजा तणू के अधिकार मे था। इस बाबत दोनों नरेशों मे आपसी टकव
चल रहा था, लेकिन राजा तणु भी आवड़ा माता का भगत था। इस बाबत दोनों नरेशों मे आपसी टराहट रुकवाते हुवे, जगत जननी ने अदृश्य रूप “मेलाखियार जाम” की सहायता की, दोनों का सुदृढ़ राज्य स्थापित हो गया।
विक्रम संवत 828 ईस्वी में आवड़ माता ने अपने भौतिक शरीर के रहते हुए यहाँ अपनी स्थापना की।
विक्रम संवत 999 में सातों बहनों ने तणुराव के पौत्र सिद्ध देवराज, भक्तों, ब्राह्मणों, चारणों, राजपूतों और माड़ प्रदेश के अन्य लोगों को बुलाकर कहा कि आप सभी लोग सुख शांति से आनंदपूर्वक अपना जीवन बिता रहे हैं अत: हमारे अवतार लेने का उद्देश्य पूर्ण हुआ। इतना कहकर सभी बहनों ने पश्चिम में हिंगलाज माता की ओर देखते हुए अदृश्य हो गईं। पहले माता की पूजा साकल दीपी ब्राह्मण किया करते थे। 1965 से माता की पूजा सीसुब द्वारा नियुक्त पुजारी करता है। तनोट माता को आवड माता के नाम से भी जाना जाता है
भाटी राजपूत नरेश तणुराव ने तनोट को अपनी राजधानी बनाया था। उन्होंने विक्रम संवत 828 में माता तनोट राय का मंदिर बनाकर मूर्ति को स्थापित किया था। भाटी राजवंशी और जैसलमेर के आसपास के इलाके के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी तनोट माता की अगाध श्रद्धा के साथ उपासना करते रहे। कालांतर में भाटी राजपूतों ने अपनी राजधानी तनोट से हटाकर जैसलमेर ले गए परंतु मंदिर तनोट में ही रहा।
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मंदिर परिसर में गिरे 450 बम तो फटे तक नहीं |
यह मंदिर भारत ही नहीं बल्कि पाकिस्तानी सेना के फौजियों के लिये भी आस्था का केन्द्र रहा है।तनोट माता का मंदिर से से भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965 और 1971 की लड़ाई) की कई अजीबोगरीब यादें जुडी हुई हैं। पाकिस्तानी सेना को परास्त करने में तनोट माता की भूमिका बड़ी अहम मानी जाती है। यहां तक मान्यता है कि माता ने सैनिकों की मदद की और पाकिस्तानी सेना को पीछे हटना पड़ा। इस घटना की याद में तनोट माता मंदिर के संग्रहालय में आज भी पाकिस्तान द्वारा दागे गये जीवित बम रखे हुए हैं।
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मंदिर में आज भी सेना के जवानों की आस्था है। वे यहां आकर मां से उनकी रक्षा करने की प्रार्थना करते हैं। |
मंदिर के बारे में बता रहा है कि जिस पर दुश्मन पाकिस्तान के द्वारा दागे गए गोले भी रहे बे असर
रहे,करीब 3000 तोप के गोले भी मंदिर को रत्ती भर भी नुकसान नहीं पहुंचा पाए,थे यहां तक कि मंदिर परिसर में गिरे 450बम तो फटे तक नहीं।1965 को भारत-पाक युद्ध के दौरान जो चमत्कार देवी ने दिखाए उसके बाद तो भारतीय सैनिकों और सीमा सुरक्षा बल के जवानों की श्रद्धा का विशेष केन्द्र बन गई।
17 से 19 नवंबर 1965 को शत्रु ने तीन अलग-अलग दिशाओं से तनोट पर भारी आक्रमण किया। दुश्मन के तोपखाने जबर्दस्त आग उगलते रहे। पाकिस्तान ने भारत के इस हिस्से पर कब्जा करने उद्देश्य से जबर्दस्त हमले किए लेकिन उन्हे कामयाबी नहीं मिली।
देवी का भाव सन्देश मिला -जबकि 13 ग्रेनेडियर्स और चौथी आर.ए.सी. के केवल तीन सौ भारतीय सैनिक मोर्चे पर थे। इसी दौरान गुमान सिंह सिसोदिया नामक एक जवान को देवी का भाव सन्देश मिला, "जैसलमेर के रास्ते में बारुदी सुरंगें बिछा दी गयी हैं। तनोट पर हमला होने वाला है, पर घबराना मत, मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। तुम्हारी विजय होगी।" तीसरे दिन निर्णायक युद्ध में भारतीय सेना की विजय हुई। शत्रु सेना मंदिर पर हमला करने को अग्रसर हुई और मंदिर के आस-पास 3 हजार बम बरसाए, किन्तु भारतीय सेना के किसी जवान को चोट नहीं लगी।
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माता रानी भटियानी जोगीदास धाम , लोंगेवाला |
तनोट पर आक्रमण से पहले शत्रु (पाक) पूर्व में किशनगढ़ से 74 किमी दूर बुइली तक पश्चिम में साधेवाला से शाहगढ़ और उत्तर में अछरी टीबा से 6 किमी दूर तक कब्जा कर चुका था। पाक सेना 6 किमी. अंदर तक हमारी सीमा में घुस आई थी। तनोट तीन दिशाओं से घिरा हुआ था। यदि शत्रु तनोट पर कब्जा कर लेता तो वह रामगढ़ से लेकर शाहगढ़ तक के इलाके पर अपना दावा कर सकता था। अत: तनोट पर अधिकार जमाना दोनों सेनाओं के लिए महत्वपूर्ण बन गया था।
बाद में जब भारतीय सेना हावी हो गई, उन्होंने जवाबी आक्रमण किया जिससे पाकिस्तानी सेना को भयंकर नुकसान हुआ और वे पीछे लौट गयी। विश्वास किया जाता है कि तनोट माता के प्रताप से ऐसा हुआ।
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लोंगेवाला पाकिस्तान बॉर्डर |
भारत की सेना (३ राजपुताना राइफल्स और २३ पंजाब रेजिमेंट ) रहीमयार खान पर कब्जे के लिये इस्लाम गढ़ तक पहुच गयी थी कि युद्ध विराम कि घोषणा हो गई | रहीमयार खान पाकिस्तान के लिये बड़े ही सामरिक महत्त्व का है | यहाँ का रेलवे स्टेशन पाकिस्तान का अंतिम छोर है और यहीं से सिंध प्रान्त शुरू होता है |
कहते हैं सैनिकों को माता ने स्वप्न में आकर कहा था कि जब तक तुम मेरे मंदिर के परिसर में हो मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी।
सैनिकों की तनोट की इस शानदार विजय को देश के तमाम अखबारों ने अपनी हेडलाइन बनाया।
रूमालों वाली मातारानी तनोट माता रूमालों वाला मन्दिर,हजारों रूमालों में झलकती आस्था
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रूमालों वाली मातारानी तनोट माता रूमालों वाला मन्दिर,हजारों रूमालों में झलकती आस्था |
श्रद्धालु माता से मन्नत माँगते हैं और वहाँ एक रूमाल बाँधकर जाते है। मन्नत पूर्ण होने पर बाँधा रूमाल खोलने दोबारा यहाँ आते हैं। मंदिर परिसर में लाखों ऐसे श्रद्धालुओं के रूमाल बँधे हुए हैं। यह मंदिर रूमालों का मन्दिर के नाम से भी विख्यात हो गया है। सीमा सुरक्षा बल के जवानों ने यहाँ बिना लाभ-हानि के कैन्टीन भी संचालित कर रखी है।
हर आश्विन और चैत्र नवरात्र में यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है।
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मंदिर प्रांगण में लोंगोवाल लड़ाई का पूरा इतिहास जाना जा सकता है। |
दिनोंदिन अपनी बढ़ती प्रसिद्धि के कारण तनोट एक पर्यटन स्थल के रूप में भी प्रसिद्ध होता जा रहा है। माता के मन्दिर की देखरेख, सेवा, पूजापाठ, आराधना व अर्चना सीमा सुरक्षा बल के जवान ही करते हैं।
ताजा आंकड़ों के अनुसार मुताबिक तनोट गांव में 49 परिवारों के 492 लोग रहते हैं। यह जगह पाकिस्तानी सीमा के इतनी नजदीक है कि अक्सर यहां के घरों को गोलीबारी झेलनी पड़ती है।
इसके अलावा दोनों ओर की सेनाओं ने इस पूरे क्षेत्र में लैंड माइन लगा रखी हैं।
कहा जाता है माता ने सैनिकों को स्वप्न में आकर कहा था कि जब तक तुम मेरे मंदिर के परिसर में हो मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी।केवल यह ही नहीं इसके उपरांत भी माता ने सैनिकों के सिर पर ममता का हाथ रखा जैसे 4 दिसम्बर 1971 की रात को पंजाब रेजीमेंट की एक कंपनी और सीसुब की एक कंपनी ने लोंगेवाला में विश्व की महानतम लड़ाइयों में से एक में पाकिस्तान की पूरी टैंक रेजीमेंट को धूल चटा दी थी। लोंगेवाला को पाकिस्तान टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया था
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मंदिर में रखा हुआ तोप का गोला जिसे पाकिस्तान ने मंदिर पर फेंका था, जो नहीं फटा। |
पर युद्ध देवी के नाम से प्रसिद्ध इस देवी के प्रकोप से पाक सेना को न केवल उल्टे पांव लौटना पडा बल्कि अपने सौ से अधिक सैनिकों के शवों को भी छोड कर भागना पडा। माता के बारे में कहा जाता है कि युद्ध के समय माता के प्रभाव ने पाकिस्तानी सेना को इस कदर उलझा दिया था कि रात के अंधेरे में पाक सेना अपने ही सैनिकों को भारतीय सैनिक समझ कर उन पर गोलाबारी करने लगे और परिणाम स्वरूप स्वयं पाक सेना द्वारा अपनी सेना का सफाया हो गया। इस घटना के गवाह के तौर पर आज भी मंदिर परिसर में पाक सेना के कमाण्डर शहनवाज खां ने यहां चढाया छत्र है।
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बॉर्डर पोस्ट 638 के पिलर को एक छत्री का रूप दिया गया है। |
भारत पाकिस्तान के बीच रिश्ते चाहे जैसे भी हो, एक दूसरे के जवान एक दूसरे के खून के प्यासे ही सही लेकिन इतनी कडवाहट के बीच भी माता तनोट के इस मंदिर में सरहद व मजहब सभी फासले भुला कर लोग श्रद्धा के साथ सर झुकाते है।
१९७१ के युद्ध के बाद पाक सैन्य कमांडर शाहनवाज खान ने माता तनोट राय कि शक्ति से अभिभूत हो कर भारत सरकार से दर्शन कि इजाजत मांगी | २.५ वर्ष बाद इजाजत मिलने पर ,शाहनवाज खान ने माता के दर्शन किये और क्षत्र चढ़ाया | एक बार अकबर को भी माता ज्वाला जी कि शक्ति का लोहा मानकर क्षत्र चढाना पड़ा था |
माता की शक्ति को देखकर पाक सेना के कमाण्डर शहनवाज खां ने युद्ध समाप्ति के बाद भारत सरकार से माता के दर्शन की इजाजत मांगी व ढाई वर्ष बाद इजाजत मिलने पर शहनवाज खां ने माता के दर्शन कर यहां छत्र चढाया।
जो माता का मंदिर अब तक सुरक्षा बलों का कवच बना रहा, शान्ति होने पर सुरक्षा बल इसका कवच बन गये। मंदिर को बीएसएफ ने अपने नियंत्रण में ले लिया। वर्तमान में मंदिर का प्रबंधन और संचालन सीसुब की एक ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है। आज यहां का सारा प्रबन्ध सीमा सुरक्षा बल के हाथों में है। मंदिर के अन्दर ही एक संग्रहालय है जिसमें वे गोले भी रखे हुए हैं। पुजारी भी सैनिक ही है। सुबह-शाम आरती होती है। मंदिर के मुख्य प्रवेश द्वार पर एक रक्षक तैनात रहता है, लेकिन प्रवेश करने से किसी को रोका नहीं जाता। फोटो खींचने पर भी कोई पाबंदी नहीं।
नजारा देखने को मिलता है कि यह हिन्दू देवी नहीं होकर कोई सद्भावना देवी हों। पाँच प्रकार से राजस्थानी भाषा में माँ की आरती की जाती है।
इन देवी को थार की वैष्णों देवी भी कहा जाता है।
मंदिर में एक छोटा संग्रहालय भी है जहाँ पाकिस्तान सेना द्वारा मंदिर परिसर में गिराए गए वे बम रखे हैं जो नहीं फटे थे।
लोंगेवाला विजय के बाद माता तनोट राय के परिसर में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया, जहाँ हर वर्ष 16 दिसम्बर को महान सैनिकों की याद में उत्सव मनाया जाता है।
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लोंगेवाला विजय के बाद तनोट माता मंदिर में स्थित विजय स्तंभ। |
तनोट की रक्षा के लिए मेजर जय सिंह की कमांड में 13 ग्रेनेडियर की एक कंपनी और सीमा सुरक्षा बल की दो कंपनियां दुश्मन की पूरी ब्रिगेड का सामना कर रही थी।
तक गुमनाम रहा यह स्थान इसके बाद प्रसिद्ध हो गया। इस मंदिर की ख्याति को हिंदी फिल्म 'बॉर्डर' की पटकथा में भी शामिल किया गया था। दरअसल, यह फिल्म ही 1965 युद्ध में लोंगोवाल पोस्ट पर पाकिस्तानी सेना के हमले पर बनी थी।
शत्रु ने जैसलमेर से तनोट जाने वाले मार्ग को घंटाली देवी के मंदिर के समीप एंटी पर्सनल और एंटी टैंक माइन्स लगाकर सप्लाई चैन को काट दिया था।
तनोट से लगभग पांच किलोमीटर दूर प्रसिद्ध शक्तिपीठ घंटियाली माता का मंदिर भी स्थित है जिसके बारे में भक्तों की मान्यता है कि तनोटमाता का दर्शन लाभ प्राप्त करने के लिए पहले घंटियाली माता के दर्शन करना आवश्यक है।
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यहां भारतीय सेना के जिन हथियारों ने पाकिस्तानी सेना के छक्के छुड़ाए, उन्हें तस्वीरों में सहेजा गया है। मंदिर आने वाला हर शख्स इसे देख सकता है। |
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भारतीय सेना के वीर जवानों की याद में बना शिलालेख। |
जहां हिन्दू मंदिरों में मुस्लिमो का प्रवेश तक निषेध हैं ऐसे में तनोत माता के मंदिर में दरगाह बना कर हमारे मन में सद्भावना जगा दिया है। शुक्रवार को मुस्लिम परिवार पहले माता के दर्शन करते हें फिर दरगाह में नमाज अदा कर पूजा पाठ करते हैं। तनौत माता मंदिर आने वाला हर श्रद्धालु इस दरगाह में प्रसाद चढ़ा कर अगरबती करता है।
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युद्ध में पाकिस्तानी सेना अपना टैंक तक छोड़ गई थी। वह अभी भी तनोट मंदिर से 38 किमी दूर लोंगोवाल गांव में रखा हुआ है। आज मंदिर आने वाला हर इंसान इसे देखने जरूर जाता है। | | | | | | | | | | | | | | | | |
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मंदिर जैसलमेर के रेगिस्तानी इलाके में है। |
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मंदिर के बाहर का दृश्य। |
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भारतीय सेना के सैनिकों और खासकर 168 फील्ड रेजीमेंट की शौर्यगाथा कहता शिलालेख। |
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तनोट माता मंदिर में स्थित विजय स्तंभ। |