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"जय माताजी मारा आ ब्लॉगमां आपणु स्वागत छे मुलाक़ात बदल आपनो आभार "
आ ब्लोगमां चारणी साहित्यने लगती माहिती मळी रहे ते माटे नानकडो प्रयास करेल छे.

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31 अक्तूबर 2016

नूतन वर्षाभिनंदन

नवु वर्ष आपना जीवनमां सुख, शांति, समृद्धि, ऐश्वर्य अने  तंदुरस्ती लावे  ऐ ज  शुभकामनाओ

*नवु वर्ष विक्रम संवत 2073 नी आपने तथा आपना परिवारने हार्दिक  शुभेच्छाओ*

*नूतन वर्षाभिनंदन*
*💐💐💐💐💐💐💐*

*नवा वर्षना राम राम*
🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

*वेजांध गढवी & परिवार*
*मोटा भाडिया मांडवी कच्छ*
*www.charanisahity.in*

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           🇳 🇪 🇼
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30 अक्तूबर 2016

भुज चारण बोर्डिंगना नवनिर्माण माटे 25 लाखनुं दान - कच्छमित्रनो अहेवाल

भुज चारण बोर्डिंगना नवनिर्माण माटे 25 लाखनुं दान - कच्छमित्रनो अहेवाल

चारण समाजनुं गौरव :- सोनलबेन गोविंदभाई बारहट

चारण समाजनुं गौरव :- सोनलबेन गोविंदभाई बारहट

खूब खूब अभीनंदन

चारण संत कविश्री थार्या भगत (झरपरा-कच्छ) नी जन्म जयंती

आजे (ता.30-10-16) आसो वद- अमास ऐटले चारण संत कविश्री थार्या भगत (झरपरा-कच्छ) नी जन्म जयंती छे


चारण संत कविश्री थार्या भगतनुं टुंकमां परीचय

नाम            ::- थार्या
पितानुं नाम ::- माणशी जशाणी
मातानुं नाम ::- देवश्रीबेन
जन्म         ::- वि.सं- 1962 आसो वद अमास
अवशान    ::- संवत 2026 मगसर सुद - 15

वधारे माहिती माटे :- Click Here

 चारण संत कविश्री थार्या भगतनी रचनाओ माटे :- Click Here

थार्या भगत रचित श्याम विना व्रज सुनो लागे :- नारायण स्वामी बापुना स्वरमां ओडियो :- Click Here

29 अक्तूबर 2016

1857 का स्वतंत्र्य संग्राम और चारण साहित्य - डॉ. अंबादान रोहड़िया

1857 का स्वतंत्र्य संग्राम और चारणसाहित्य
रचनाकार : डॉ. अंबादान रोहड़िया 

प्रोफेसर, गुजराती विभाग 
सौराष्ट्र युनिवर्सिटी, राजकोट


        भारतीय इतिहास विषयक ग्रंथों का अवलोकन करने से एक बात सुस्पष्ट होती है कि हम भारत का प्रमाणभूत एवं क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत करने में सफल नहीं रहे हैं। हमारे यहाँ इतिहास एवं पुरातत्व विषयक दस्तावेज़ों के जतन करने का कार्य यथोचित रूप से नहीं हुआ है। आज भी भारतीय साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति विषयक अनेक बातें अप्रकट ही रही हैं। अतः आज भी इस क्षेत्र में विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है।

     इतिहासकार अक्सर दस्तावेज़ों को प्राधान्य देते हैं। किंतु जब दस्तावेज़ उपलब्ध न हो तब इतिहास विषयक जानकारी देने वाले स्रोत भी देखने चाहिए। हमारे यहाँ अनेक कृतियाँ अनैतिहासिक मानकर नज़र अंदाज की गई हैं। निसंदेह इस प्रकार की कृतियों में अतिरंजना और कल्पना विलास अवश्य मिलता है किंतु उनमें सुरक्षित इतिहास को हम नहीं भूल सकते हैं। उसमें इतिहास साथ-साथ है। इस प्रकार के काव्यों का परीक्षण कर यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि इनमें कहाँ तक ऐतिहासिक सत्य प्रकट हुआ है। क्या वह इतिहास के पुनर्लेखन में अप्रस्तुत कड़ियों को जोड़ने में सहायक बन सकता है या नहीं?

     भारत पर विदेशियों के आक्रमण की परंपरा सुदीर्घ नज़र आती है। अनेक विदेशी प्रजा यहाँ भारतीय प्रजा को परेशान करती रही है। इनमें ब्रितानियों ने समग्र भारतीय प्रजा और शासकों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। भारतीय प्रजा को जब अपनी ग़ुलामी का अहसास हुआ तो उन्होंने यथाशक्ति, यथामति विदेशी हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। इस आंदोलन की शुरुआत थी 1857 का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम के प्रभावी संघर्षों तथा उनकी विफलता के कारणों के बारे में विपुल मात्रा मे ं ऐतिहासिक ग्रंथ लिखे जा चुके हैं। किंतु फिर भी, बहुत सी जानकारी, घटनाएँ, प्रसंग या व्यक्तियों के संदर्भ में ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। 1857 के संग्राम विषयक इतिहास की अप्रस्तुत कड़ियों को श्रृंखलाबद्ध करने हेतु इतिहास, साहित्य और परंपरा का ज्ञान तथा संशोधन की आवश्यकता है। इसके द्वारा ही सत्य के क़रीब पहुँचा जा सकता है। यहाँ 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में सहभागी चारण कवि कानदास महेडु की रचनाओं को प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है।

       भारत में व्यापार करने के लिए आकर सत्ता हासिल करने वाले ब्रितानियों ने अपनी विलक्षण बुद्धि प्रतिभा से यहाँ की प्रजा पर अत्याचार किया था। राजा और प्रजा को विभाजित करके शासन चलाने की कूटनीति उन्होंने अपनाई थी। मगर ब्रितानियों को चारणों की बलिष्ठ बानी का अच्छी तरह परिचय हो गया था क्योंकि ब्रितानियों की कुटिल नीति को यथार्थ रूप से समझने वाले चारण कवियों ने क्षत्रियों को सचेत करने के प्रयास किए थे। किंतु दुर्भाग्य से क्षत्रिय जिस तरह से मुस्लिमों के सामने संगठित न हो पाये उसी तरह ब्रितानियों की कूटनीति को भी समझ नहीं पाये। जोधपुर के राजकवि बांकीदास आशिया ने भारतेन्दु हरिशचंद्र से भी पूर्व सन् 1805 में अपनी राष्ट्रप्रीति और स्वतंत्रता प्रीति का परिचय कराते हुए कहा है कि

आयौं इंगरेज मूलक रै ऊपर, आहंस खेंची लीधां उरां 

धणियां मरे न दीधी धरां, धणियां उभा गई धरा...!

(ब्रितानियों ने हमारे देश पर आक्रमण कर सभी के हृदय में से हिम्मत छिन ली है। पहले के क्षत्रियों ने वीरता से शहीद होकर भी धरती नहीं दी, किन्तु आज के इन पृथ्वीपतियों की उपस्थिति में ही धरती शत्रु के अधिकार में चली गई।)

कविराज बांकीदाजी ने क्षत्रियों को उनके कुल की परंपरा की याद दिलाई कि, मातृभूमि पर आक्रमण होता हो, या नारी की इज्जत लूटी जा रही हो उस समय आप वीरता से लड़ते क्यों नहीं? अरे...! वर्षों से यहाँ बसे हुए मुस्लिमों की भी यह मातृभूमि है। अतः आपसी मतभेद भूलकर सबको एकजुट होकर प्रतिकार करना चाहिए देखिए-

महि जातां चीचातां महिला, ये दुय मरण तथा अवसाण;

राखो रे केहिकं रजपूती, मरद हिंदू के मुसलमाण...!

(जब मातृभूमि पर आक्रमण होता या अबला की इज्जत लूटी जा रही हो - ये दोनों समय वीरता से लड़ने के अवसर हैं। इस समय हिन्दुओं या मुसलमानों में कोई तो अपनी वीरता-क्षात्रव्रत प्रदर्शित कर प्रतिकार कीजिए।)

अलबत, पराधीनता जैसे सहज हो चुकी हो - उस तरह जोधपुर, जयपुर और उदयपुर जैसे बड़े-बड़े राजवीओं ने उदासीनता प्रदर्शित की। इतना ही नहीं ब्रितानियों की कूटनीति से प्रभावित राजवीओं ने सैन्य एवं शस्त्रों को भी छोड़ दिया और ब्रितानियों की शरण ली। इससे नारज कवि ने कहा कि,
पुर जोंधाण उदैपुर जैपुर, यह थाँरा खूटा परियाण;

औके गइ आबसी औके, बांके आसल किया बखाण...


(जोधपुर, उदयपुर और जयपुर के राजवी आपका वंश ही नामशेष हो गया। यह पृथ्वी पराधीन हो गई है, और जब अच्छा भविष्य होगा तब ही वापस आयेगी (स्वतंत्र होगी) बांकीदास ने यह उचित वर्णन किया है।)

इस तरह, स्वतंत्रता के चाहक कवि के द्वारा स्पष्ट रूप से कटु सत्य सुनाने के बावजूद भी अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ने पर निराश हुए कवि ने अंत में कृष्ण की प्रार्थना की है कि पंचाली की विकटबेला पर सहाय करने वाले हे द्वारकाधीश! ब्रितानियों का मुँह काला कर कलकत्ता पुनः वापस दिलाइए। इन क्षत्रियों की धरती का रक्षण कीजिए। इन ब्रितानियों के दलों ने हाहाकार मचा रखा है तब आप सबका रक्षण कीजिए, और आगे कहते हैं-
"भारखंड सामो भाली जे, वछां सुरभिया दिन वालीजे,

पाध बधा दासा पाली जे, गोपीवर टोपी गालीजे...! "

(हे गोपीवर हे द्वारिकाधीश आप कृपा कर भारत खंड पर अभी दृष्टि करें। गायों और बछड़ों के सुख के दिन वापस कीजिए (अर्थात् आप पुनः गोकुल में आएं) हिन्दुओं का पगड़ी बांधने वाले दासों का जतन कीजिए, और इन टोपीवाले (ब्रितानियों) का विनाश करें।)

बूंदी के राजकवि सूर्यमल्लजी वीर रस के अनन्य उपासक थे। किन्तु उस समय उनकी काव्यधारा रूपी भागीरथी को झेलने वाले कोई शंकर रूपी राजसी नहीं मिला। अतः आगम की संज्ञा परख चुके कवि ने वीरसतसई की रचना की किन्तु, योग्य प्रतिसाद नहीं मिलने से उसे अधूरी ही छोड़ दी।
कवि ने अपने राष्ट्रप्रेमी मित्रों को निजी तौर से पत्र लिखकर ब्रितानियों के काले कारनामों से वाकिफ किया था और सबको संगठित होने के लिए प्रेरित किया था। उनके द्वारा रचित काव्य वीरसतसई का यह दोहा तो राजस्थान और गुजरात में अति प्रसिद्ध हुआ है।

'इला ने देणी आपणी, हालरिये हलुराय;

पूत सिखावे पालणै, मरण बड़ाई माय,'

(क्षत्राणियाँ - माताएँ अपने पुत्रों को पालने में सुलाकर लोरी में ही वीरता का महत्व समझाती हैं और मातृभूमि कभी भी दुश्मनों को नहीं देने के लिए कहती हैं तथा वीर मृत्यु की महिमा दर्शाती हैं।)
अलबत, उस समय की विकट परिस्थिति में क्षत्रिय एक बनकर प्रतिकार नहीं कर सके, वीरता की बात सुनने, समझने और युद्ध भूमि में प्रतिकार करने की ताक़त खो बैठे हुए समाज को कवि ने उपालंभ रूपेण कटु जहर का पान तो करवाया लेकिन यह औषधि कामयाब न हुई। क्षत्राणी के मुख में रखी हुई इस उपालंभपूर्ण बानी में कवि की मनोवेदना प्रकट होती हुई नज़र आती है।

कंत धरै किम आविया, तेगां रो धण त्रास;

लहंगे मूझ लुकी जिए, बैरी रो न बिसास...!

(हे पतिदेव! आप दुश्मनों की तलवार के प्रहार के भय से डर कर घर आये हैं? यदि ऐसा है तो दुश्मनों का कोई भरोसा नहीं, आप मेरे वस्त्रों में छिप जाइए।)
ब्रिटिश जैसी विलक्षण प्रजा चारणों की कुल परंपरा और उनकी शबद शक्ति से वाफिक न हों यह संभव नहीं है। वे अच्छी तरह जानते थे कि क्षत्रियों को युद्धभूमि में केसरिया कराने वाले, अंतिमश्वास तक जीवन मूल्यों के जतन के लिए प्रयास करने वाले चारण ही हैं। अतः उन्होंने क्षत्रियों खासकर राजवीयों को चारणों से दूर करने की नीति अपनाई। उनको व्यभिचारी, विलासी और प्रजापीड़क बनाने के लिए अंग्रेजी शिक्षा का जहर पिलाया। राजा को राजकवि तथा प्रजा से विमुख बना दिया।
कूटनीतिज्ञ ब्रितानियों ने राजा और प्रजा दोनों को लूटने की नीति अपनाई। अतः शंकरदान सामोर ने बहुस्पष्ट रूप से ब्रितानियों की नीति खुली कर दी है।
महल लूटण मोकला, चढया सुण्या चंगेझ;

लूटण झूंपा लालची, आया बस अंगरेज,

(भारतवर्ष पर चंगेजखान जैसे अनेक दुश्मन इसके पूर्व आये और उन्होंने राजमहलों में लूट चलाई है। किन्तु गरीबों को लूटने के लालची केवल ब्रिटिश ही है।)

1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में कविराज शंकरदान सामोर ने लोककवि बनकर पूरे राजस्थान का ध्यान आकर्षित किया। उस समय बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा और जयपुर जैसे बड़े राज्यों ने हिम्मत प्रदर्शित नहीं की, किन्तु शंकरदानजी ने अपना चारणधर्म अदा करते हुए स्पष्ट रूप से सरेआम मशालजी का काम किया उन्होंने बीकानेर के सरदारसिंह राठौड़ को उपालंभ दिया कि,
"देख मरे हित देस रे, पेख सचो राजपूत;

सिरदरा तोनै सदा, कहसी जगत कपूत"

(जो मातृभूमि के मानार्थ शहीद होता है वही सच्चा राजपूत है, किन्तु हे देशद्रोही सरदारसिंह राठोड़ आपको तो सभी कपूत के रूप में ही पहचानेंगे।)
"लाज न करे चोडेह लड, देस बचावण दिन;

बलिदानां बिन बावला, राजवट कदी रहे न... "

(हे सरदारसिंह तुम अभी भी समय को पहचान कर नारी की तरह डरना, लजाना छोड़कर खुलेआम मैदान में आ जाओ। यह समय तो देश को बचाने का है। अरे मूर्ख राजवट क्षत्रियवट बलिदान के बिना कभी नहीं रहती है।)
भरतपुर के वीरों ने दर्शाये हुए अप्रतिम शौर्य की प्रशंसा करता हुआ यह काव्य तो लोकगीत बनकर पूरे राजस्थान में प्रसिद्ध हुआ था।
" फिरंगा तणी अणवा फजेत, करवानै कस कस करम;

जण जण बण जंगजीत, लडया ओ धरा लाडला"

(फिरंगीयो-ब्रितानियों की फजीहत, पराजित करने हेतु एक-एक शूरवीरों ने कमर कसी और युद्ध में कूद पडे। इस धरा के लाडले ऐसे एक-एक वीर संग्रामजीत योद्धा बन लड़े।)
भरतपुर की भव्य शहादत की तारीफ करते हुए कवि ने मानो ब्रितानियों को चेतावनी दी कि तुम्हारी सत्ता अब यहाँ नहीं चलेगी। अतः तुम वापस जाओ। कवि ने भरतपुर के राजवी को दशरथ नंदन कह कर देशप्रेम का लोक हृदय में कैसा स्थान होता है यह दर्शाया है, देखिए:
" गोरा हटजया भरतपुर गढ बांको,

नंहुं चालेलो किलै माथै बस थांको;
मत जांणिजे लडै रै छोरो जाटां को;
ओतो कुंवर लडै रे दसरथ जांको,"

(हे गोरे ब्रितानियों यहाँ से तुम वापस चले जाओ, क्योंकि भरतपुर का गढ़ किला अजेय है। उस पर भी तुम्हारा प्रभाव नहीं पड़ेगा। तुम यह मत मानना कि तुम्हारे विरूद्ध मात्र जाट योद्धा ही लड़ते है। वे तो दशरथनंदन ऐसे भगवान राम ही हैं।)
भरतपुर और अन्य राज्यों में व्याप्त क्रान्ति की ज्वाला शांत पड़ने लगी है। अतः कवि ने इस अवसर का स्वागत कर देश को आजादी दिलाने के लिए सबको उत्प्रेरित किया, फिर कभी ऐसा मौका नहीं मिलेगा-ऐसा भी कहा। किन्तु भारतवर्ष की गुलामी की जंजीरें टूटी नहीं थी। इस बात पर समाज ने गौर नहीं किया था यथा-
" आयो अवसर आज, प्रजा पख पुराण पालग;

आयो अवसर आज, गरब गोरा रो गालण;
आयो अवसर आज, रीत राखण हिंदवांणी;
आयो अवसर आज, रण खाग बजाणी;
काल हिरण चूक्या कटक, पाछो काल न पावसी,
आजाद हिन्द करवा अवर, अवसर इस्यो न आवसी,"

(आज प्रजा का रक्षक बनकर उसका निर्वाह करने का अवसर आया है। आज तो इन गोरे ब्रितानियों के अपराजित होने के अभियान को दूर करने का अवसर आया है। आज तो हिन्दुओं के कुल की परंपरा और नीति-रीति बनाये रखने का समय आया है। आज तो युद्धभूमि में वीरता से तलवार घुमाने का अवसर आया है। आज इस पल का लाभ लेना सैनिक चूक जायेंगे तो फिर ऐसा समय नहीं आएगा। हिन्दुस्तान को आजाद करने के लिए ऐसा अवसर फिर कभी भी नहीं मिलेगा। इसीलिए सब वीरता से लड़ लीजिए।)
कविराज शंकरदान सामोर की काव्यबानी में लोगों को शस्त्र की ताकत का दर्शन हो यह बात स्वाभाविक है। राष्ट्रप्रेमियों के लिए शंकरदान सामोर के गीत कुसुमवत् कोमल थे मगर देशद्रोहियों के लिए तो वह बंदूक की गोली समान है। इसीलिए तो किसी ने कहा है कि -
' संकरिये सामोर रा, गोली हंदा गीत;

मितर सच्चा मुलक रा, रिपुवां उल्टी रीत'

(कविराज शंकरदान सामोर के गीत तो बंदूक की गोली जैसे हैं। वह देशप्रेमियों के लिए मित्रवत है। लेकिन देशद्रोहियों के वह कट्टर दुश्मन है।)

28 अक्तूबर 2016

चारण समाजनुं गौरव

ता.27-10-2016 ना रोज गांधीनगर खाते राज्यनी विविध पोलीटेकिनक कॉलेजो माटे पसंगदी पामेला व्याख्याता (वर्ग-2) ने ऑर्डर आपवामां आवेल.

जेमां चारण गढवी समाज ना नीचे मुजबना उमेदवारो GPSC वर्ग-2 नी परीक्षा पास करीने निमणुक ऑर्डर मेळवेल छे

(1) वालजी मोहन गढवी (नानी रायण कच्छ)
व्याख्याता मिकेनिकल ऐन्जी. (वर्ग-2)
सरकारी पोलीटेकिनक कोलेज भुज कच्छ


(2) नीलेश नैया (गढवी) - लींबड़ी
व्याख्याता मिकेनिकल ऐन्जी. (वर्ग-2)
सी.यु. पोलीटेकिनक कोलेज सुरेन्द्रनगर


व्याख्याता (वर्ग-2) तरीके निमणुक मळवा बदल खूब खूब अभीनंदन

सरस्वती वंदना - पिंगलशी मेघाणंद लीला बापू कृत

🙏🌹 सरस्वती वंदना🌹🙏

🙏🌹🌹 छंद: भुजंगी🌹🌹🙏

सदा सोहति देह स्वेताम्बरोथी
सुगंधि वहेती मधु मोगरोथी
करुणा भरी सर्वनु श्रेयकारी
नमो शारदा मात कल्याणकारी ।।1।।

धरी हाथ वीणा मणिकंठ माला
कलाकारना दूर करती कसाला
शिखंडी परे सोहति दिव्य स्वारी
नमो शारदा मात कल्याणकारी ।।2।।

तू ही मात जीभासने स्थान लेती
गिरा उमदा ए घडी ज्ञान देती
प्रकाशो घणा अँतरे पुरनारी
नमो शारदा मात कल्याणकारी ।।3।।

कृपा उतरे मात तारी अमुली
कमाडो बधा भाग्यना जाय खुली
असाधार तू स्मुर्द्धि आपनारी
नमो शारदा मात कल्याणकारी ।।4।।

कृपासिंधु हे मात तू विश्वव्यापी
कही दिनना नाखिया कष्ट कापी
रमे रिद्धि ने सिद्धि कई रूप धारी
नमो शारदा मात कल्याणकारी ।।5।।

कवि पंडितो ध्यान तारु धरे छे
बधी व्याधिओ एमनी तू हरे छे
स्तवे मात पिंगल तने वारीवाऱी
नमो शारदा मात कल्याणकारी ।।6।।

( कविराज श्री स्व पिंगलशी मेघाणंद लीला बापू कृत ~ छत्रावा -जामनगर  ~ कवि रचितग्रन्थ - नर्मदा शतक माथी)

सर्वे चारण बंधू  आज नी शुभ तिथि वाक्बारस ने निमित्ते

जय माँ शारदा !
जय माँ सरस्वती !!

🙏🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🙏

(टाइप : रणजीत सौदा ~ईडर)

(भूलचुक होय तो सुधारी वांचशोजी)

वो दीवाली अब नहीं आती - देव गढवी

*वो दीवाली अब नहीं आती*

रुपयोंसे बडा पैसा हुवा करता
         वो दीवाली अब नहीं आती
ऐक कमीज ऐक पटलुन सीलाती
          वो दीवाली अब नहीं आती

साल भर हमें ईंन्तजार था रहेता
           गुल्लक में सपना था रहेता
अब पापा का दुलार नहीं लाती
           वो दीवाली अब नहीं आती

जैब ही मेरे खजाना सा लगता
         चंद पैसो में अमीर सा लगता
माँ के गोद की छाँव नही लाती
            वो दीवाली अब नहीं आती

नन्हें हाथों से कभी दीप जलाता
            घर-आंगन को खुब सजाता
विधुतयंत्र से वो खुशी नहीं आती
             वो दीवाली अब नहीं आती

बहन के साथ भी रंगोली बनाता
           मीठी डाँट का रंग अजमाता
"देव"भाई-बहनका स्नेह नहीं लाती
             वो दीवाली अब नहीं आती

✍🏻 देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
        कच्छ

         

तजुर्बा - देव गढवी

             *तजुर्बा*
               

महेफिल-ऐ-खास से निकली तो तन्हाई से मिली!
बाजार-ऐ-मोहब्बत से गुजरी तो रुसवाई से मिली!

ऐ जिंदगी तेर हर सफ्फे पे श्याही का दाग क्युं है?
कुछ लिखा भी ना गया था और लिखाई सी मीली!

कुछ दुर तक तो चलती रही दामन-ऐ-यार थाम के!
फिर शब-ऐ-मिलन के वक्त ही क्युं जुदाई सी मीली?

अंदाज-ऐ-बयां कुछ युं रहाँ तजुर्बा-ऐ-उम्र-ऐ-दराज
कुछ अपने ही अपनो से"देव,चोट खाई सी मिली..

✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
       कच्छ

ऐ श्वास मले तो कहेजो - देव गढवी

          *ऐ श्वास मले तो कहेजो*

ऐ श्वास मले तो कहजो
               तो हुं धबकार नोंधावीश
निश्वार्थ मले तो कहेजो
              तो हुं सत्कार नोंधावीश
                           ऐ श्वास मले..

यांत्रिक थई गई छे हवे
               आ मानवनी जिवनक्षैली
जीवन मले तो कहेजो
                तो हुं होंकार नोंधावीश
                            ऐ श्वास मले..

आज ह्रदयनी वातो ने
               भीतर साचवे छे लोको
ई खुला मले तो कहेजो
               तो हुं विचार नोंधावीश
                            ऐ श्वास मले..

आम तो हवे जीवन ऐक
               लौकांकी बन्युं छे "देव"
आ पत्रीका मली गई हवे
                तो हुं व्यवहार नोंधावीश
                            ऐ श्वास मले..

✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
        कच्छ

फोगट गयो अवतार - देव गढवी

*फोगट गयो अवतार*

रोज सत्संग करता,पण समजे नहीं सार
प्रसाद दोष वर्णता,फोगट गयो अवतार

काम,क्रोध,लोभ थी,मन छुटे न पल वार
लाख पुण्य करताये,फोगट गयो अवतार

बोल कडवा बोलतां,अपशब्दो तो अपार
नित्य निंदा जे करता,फोगट गयो अवतार

सुधारे नहीं कोईकनुं,बगाडता करे न वार
अवणा मार्ग चींधता,फोगट गयो अवतार

सुणे नहीं कोई रंकनुं,रंजाडे जई धर-द्वार
मन दुभावे निर्दोष नुं,फोगट गयो अवतार

सज्जन घेर जन्मे,ने दुर्जन वर्ताय विचार
जेनी आंखे जेर भर्युं,फोगट गयो अवतार

मदीरापान करतां,अने पशु तणो आहार
लाख गंगा नहातां ये,फोगट गयो अवतार

आदरभाव न जाणती,ऐनो बने भरथार
गुलाम बनी रहेतो,फोगट गयो अवतार

मातृ-चरण भुलीने,ते पुजे निज घर नार
पितृ रूण न उतरे,फोगट गयो अवतार

देव कहे जो समजो,नानी वातो बे-चार
तेम छतां न समजे,फोगट गयो अवतार

✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
       कच्छ

आगथी आग - देव गढवी

        *आगथी आग*

आगथी आग ओलववा ना प्रयास रहेवा दो
मीठा खंजर थी कापवा ना प्रयास रहेवा दो
                                    आगथी आग ....

समजे छे बधुं जगत पण ओणखे छे तमोने
छुपाववी ऐ अरीसा समक्ष जात ने रहेवा दो
                                   आगथी आग ....

हसतां मुखे भीतरनुं आ तमारु अणगमुं छे
मलो आवी स्नेही बनीने हवे ईष्याॅ रहेवा दो
                                  आगथी आग ....

अमोअंगत बनी दगो करी ऐ संस्कारो नथी
शिखववा पाठ अमने चतुराई ना रहेवा दो
                                  आगथी आग ....

अंगत मुकीने"देव",आगण वधवुं नथी सारुं
स्नेही रह्या पाछण तो मने पाछण रहेवा दो
                                  आगथी आग ....

✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
        कच्छ

आईयुं ने समर्पित - देव गढवी

*आईयुं ने समर्पित*

आईयुं ने समरतां मारे हैये हाम थाये,
भेणीयाणी भेरी तो सब दु:ख दुर थाये..
                          आईयुं ने समरतां..

केट केटला नामे तुं भगवती पुजाये,
करणी,चांपल,मोगल,सोनल कहेवाय..
                          आईयुं ने समरतां..

ऊजणुं चारण कुण, माँ तुज थी दीपाये,
तुंही आवड तुंही राजल तुंज
तनोटराय.
                          आईयुं ने समरतां..

शब्दे वहेती सरीता नेह ममता निर भराये,
दया केरो सागर"देव"मन थी छलकाये..
                          आईयुं ने समरतां..

✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
        कच्छ

मने अनुसरशो नहीं : देव गढवी

 *मने अनुसरशो नहीं*

सामा पुरे आम तमो चडशो नहीं
अनुकरण थशे मोंधु मने अनुसरशो नहीं

छे नुकशान घणुं ऐमां फायदो नहीं
आम जिद्द मारी जेमज तमो करशो नहीं

खरुं बोलवा जतां सबंध रहशे नहीं
आम मोढे सत्य उच्चारी ने बगडशो नहीं

आतो अमो रह्या लाभो जोता नहीं
हानी तरफ तमे कायमी तो वणशो नहीं

गुमावी स्मित करवुं ऐ सहेलुं नहीं
अमारी जेम आछेरुं आम मलकशो नहीं

मोज-ऐ-फकीरी अमथी होय नहीं
"देव"खाली थवुं पडे छे मने भरशो नहीं

✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
       कच्छ

मोज-ऐ-फकीरी :देव गढवी

*मोज-ऐ-फकीरी*

हुं मोज नो आशीक मारी मोज-ऐ-फकीरी
चाहे छे मने खुब मारी मोज-ऐ-फकीरी

नहीं पामवुं कशुं न गुमाव्या तणो अफशोश
राखे छे अलमस्त मारी मोज-ऐ-फकीरी

वर्तन मारुं कदाच अणछाजतुं लागे कोईने
कहेवडावे छे सत्य मारी मोज-ऐ-फकीरी

स्वार्थ माटे थई ने कदी स्वांग हुं रचतो नथी
राखे छे निस्वार्थ ऐ मारी मोज-ऐ-फकीरी

मारुं वस्त्र मेलुं-धेलुं ने दाग छे ऐ वात साची
आतम राखवुं साफ मारी मोज-ऐ-फकीरी

खबर बधी"देव"तोये चुपकीदी साधी लवुं छुं
अने मौन पण बोले मारी मोज-ऐ-फकीरी

✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
        कच्छ

सुर्य नारायण ने अर्पण भाव :- देव गढवी

*सुर्य नारायण ने अर्पण भाव*

दीशता सुरज भाण दुर थयो अंधकार
युगो-युगो थी जागृत देव,तुं तारणहार

कीरणो पंथे वसुंधरा बन्यो पालन हार
जगतात नो पण तात तुं,ऐवा सर्जनहार

खुद ज्वाला भणी करे जगत नो संचार
निज तेज आपे चंद्र ने,शीतणता अपार

धगधगती ज्वालाओ नो तारी ऐक सार
धगी ने पण भलु करो,केम भुले संसार

विर चारण आई तणो वचन निभावनार
अडग अविचण रही,बोले बंधाई रहेनार

फक्त देवानी टेक राखी कदी न मांगनार
शीश नमावी वंदन देव,तुने हजारो वार

(उपर प्रथम पंक्ति मां उगतां सुरज देव माटे "उगतां" नी जग्या पर "दिशता" शब्द प्रयोग करेल छे जेनो अर्थ "जोता(देखाता) ऐवो थाय छे कारण के सुर्यनारायण अवीचल अडग छे ते स्थिर छे ते उगतां के आथमतां नथी पृथ्वी तेना फरते प्रदक्षिणा करती होवा थी आपणे तेना थी विमुख थई जतां रात पडे छे ऐटले आपणे सुरज आथम्यो ऐवो आभास थाय छे)
भुल-चुक क्षमा आपी ध्यान दोरवुं🙏🏻

✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
       कच्छ

धुतारा ज पुजाय छे :- देव गढवी

  *धुतारा ज पुजाय छे*

निर्दोष भावे मजबुर नो हाथ क्यां पकडाई छे
साचा ह्रदय ना मानवी हवे मन मां मुंजाय छे
कली ना युग मां तो हवे धुतारा ज पुजाय छे

अगणीत आपे ऐनुं नाम गणी-गणी लेवाय छे
टेरवे यंत्र बांधी हवे जुवो प्रभु स्मरण थाय छे
कली ना युग मां तो हवे धुतारा ज पुजाय छे

हवे लाचारो ने मदद करवा हाथ क्यां देवाई छे
मंदीरो मां तख्ती लगाडी जाहेरात कराय छे
कली ना युग मां तो हवे धुतारा ज पुजाय छे

गरीब ने देवा तो ऐनी आवक पुछी लेवाय छे
मंदीर नी आवक नो हीसाब क्यां पुछाई छे?
कली ना युग मां तो हवे धुतारा ज पुजाय छे

जे भाव नो भुख्यो छे ऐने चादरो चडावाई छे
ठंडी मां बालक ऐक खुला वदने सुई जाय छे
कली ना युग मां तो हवे धुतारा ज पुजाय छे

भोला बालुडा नी हवे खबरो क्यां पुछाय छे?
श्रीमंत ना श्वानो ना जन्मदीवस उजवाय छे
कली ना युग मां तो हवे धुतारा ज पुजाय छे

हे प्रभु तारा देह पर नित वाघा बदली देवाई छे
देव कपडुं दई कोईनी मर्यादा क्यां ढंकाई छे?
कली ना युग मां तो हवे धुतारा ज पुजाय छे

✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
       कच्छ

देव गढवीनी रचना

चंद शियासत दानों के हुक्म के गुलाम है
ये वो आदम है जो शैतानों के गुलाम है।

बंदगी कीसे कहते है,ईनको ईल्म कहाँ ?
कुरान समजे नहीं,मतलब के गुलाम है
ये वो आदम है जो शैतानों के गुलाम है।

ईंन्हें मुसलमां कहेना ईस्लाम की तौहीन है
बेगुनाहों के रोज करते कत्ल-ऐ-आम है
ये वो आदम है जो शैतानों के गुलाम है।

हैवानियत को ये बे-वजह जिहाद कहते है
ये मजहब का नहीं होता कभी पैगाम है
ये वो आदम है जो शैतानों के गुलाम है।

युं कुरान-ऐ-पाक को क्युं बदनाम करते है?
कुरान की आयातों में कहीं न ये फरमान है।
ये वो आदम है जो शैतानों के गुलाम है।

ईंन्सानियत से ही गीता प्रेम से ही कुरान है
मजहब हो भाई-चारा नारा-ऐ-आवाम है
ये वो आदम है जो"देव" शैतानों के गुलाम है।

✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
        कच्छ

वीर शहीद माणशी राजदे गढवी ने ऐक चारण भाई तरीके गौरव लई ने शब्दो रुपी भावांजली

*वीर शहीद माणशी राजदे गढवी ने*
*ऐक चारण भाई तरीके गौरव लई ने*
*शब्दो रुपी भावांजली आपवा प्रयास*
*करेल छे,भुल-चुक क्षमा पात्र*🙏🏻

जाणे उग्यो सोणे कला ऐ भाण जोने
दीशतो ऐवो वीर माणशी रे लोल ....

ऐणे राखयुं छे कांई नवेखंडे नाम जोने
गरवो चारण वीर माणशी रे लोल ....

तने जाजी रे खम्मायुं दे माँ भोम जोने
सावज बालुडो वीर माणशी रे लोल ....

ऐणे डगला मांड्या छे सीधा स्वर्ग जोने
हरखे उल्लासे वीर माणशी रे लोल ....

ऐवा देश भक्ती ना हवन केरा कुंड जोने
होम्या छे प्राण वीर माणशी रे लोल ....

ऐने माथे तीलक माँ भोम नुं शोभे जोने
शुरवीर युवान वीर माणशी रे लोल ....

लाखो वंदन तने चारण "देव" तणा जोने
अडग ने निडर वीर माणशी रे लोल ....

✍🏻 देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
        कच्छ

27 अक्तूबर 2016

शिक्षण विभाग मां 17849 जग्याओ नी भरती अंगे प्रेस नोट

शिक्षण विभाग मां 17849 जग्याओ नी भरती अंगे प्रेस नोट

गुजरात पोलीस दळ वर्ग-3 संवर्गनी जग्याओ नी भरती

गुजरात पोलीस दळ वर्ग-3 संवर्गनी जग्याओ नी भरती

गुजरात पोलीस दळमां पोलीस सब ईन्स्पेकटर वर्ग-3 संवर्ग नी नीचे मुजब 685 जग्याओ

🔹बिन हथियारी PSI (पुरुष) - 147
🔸बिन हथियारी PSI (महिला) - 73
🔹हथियारी PSI (पुरुष) - 124
🔸ईन्टेलीजन्स ऑफिसर (पुरूष) - 40
🔹ईन्टेलीजन्स ऑफिसर (महिला) - 19
🔹बिन हथियारी ASI (पुरुष) - 134
🔸बिन हथियारी ASI (महिला) - 66
🔸आसीटन्ट ईन्टेलीजन्स ऑफिसर (पुरूष) - 55
🔹आसीटन्ट ईन्टेलीजन्स ऑफिसर (महिला) - 27
ऑनलाइन फॉर्म शरू तारीख ::- 28-10-2016
फॉर्म भरवानी छेल्ली तारीख ::- 17-11-2016
फॉर्म भरवा माटे ::- Click Here

वधारे माहिती माटे :- Click Here



चारणकविश्री कानदास महेडु का 1857 के स्वातंत्र्य संग्राममें योगदान-

चारणकविश्री कानदास महेडु का 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में योगदान-

कानदास महेडु ने 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य में गुजरात के राजवीओं को ब्रितानियों के विरूद्ध आंदोलन छेड़ने के लिए प्रेरित किया हो और इसके कारण उनको फाँसी की सजा फरमाई गई हों ऐसी संभावनाएँ हैं। इसके अतिरिक्त ब्रितानियों के विरूद्ध शस्त्र उठाने वाले सूरजमल्ल को उन्होंने आश्रय दिया था। इसके कारण उनका पाल गाँव छीन लिया गया था। इस संदर्भ में कुछेक दस्तावेज भी उपलब्ध होते हैं। प्रसिद्ध इतिहासविद् श्री रमणलाल धारैया ने यह उल्लेख किया है कि "खेडा जिले के डाकोर प्रदेश के ठाकोर सूरजमल्ल ने 15 जुलाई 1857 के दिन लुणावडा को मदद करने वाली कंपनी सरकार के विरूद्ध आंदोलन किया था। बर्कले ने उनको सचेत किया था किन्तु सूरजमल्ल ने पाला गांव की जागीरदार और अपने मित्र कानदास चारण और खानपुर के कोलीओं की सहायता से विद्रोह किया था। मेजर एन्डुजा और आलंबन की सेना द्वारा सूरजमल्ल और कानदास को पकड़ लेने के बाद उनको फाँसी की सजा दी गई और सूरजमल्ल मेवाड की ओर भाग निकले थे। आलंबन और मेजर एडूजा ने पाला गांव का संपूर्ण नाश किया था।"

डॉ. आर. के. धारैया ने 1857 इन गुजरात नाम ब्रिटिश ग्रंथ में भी उपर्युक्त जानकारी दी है। और अपने समर्थन के लिए Political depertment volumes में से आधार प्रस्तुत कर यह जानकारी दी है। इससे श्रद्धेय जानकारी मिलती है कि कानदास महेडु ने 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में योगदान दिया था। अलबत्ता यहाँ Kands charan और Pala का अंग्रेजी विकृत नाम है।

ब्रितानियों ने हमारे अनेक गाँवों के नाम अपने ढंग से उल्लेखित किये हैं। इसके लिए यहाँ बोम्बे, बरोडा, खेडा, अहमदाबाद, भरूच, कच्छ इत्यादि संदर्भों को उद्धृत किया जा सकता है। इससे यह पता लगता है कि कानदास महेडु अर्थात् कानदास चारण और Pala अर्थात् पाला एक ही है।

'चरोतर सर्वे संग्रहे' के लेखक पुरूषोत्तम शाह और चंद्रकांत कु. शाब भी यह उल्लेख करते है किं " कानदास महेडु सामरखा 1813 में संत कवि के रूप में सुप्रसिद्ध हुएं थे। 1857 के आंदोलन के बाद उनको आंदोलनकारियों को मदद करने के कारण पकड़ लिया गया था। कहा जाता है कि कवि ने जेल में देवों और दरियापीर की स्तुति गा कर अपनी जंजीरें तोड़ डाली थीं। इस चमत्कार से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उनको छोड़ दिया था।"

1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में कानदास का गाँव जप्त कर लेने के दस्तावेजी आधार भी हैं। कवि ने कैद मुक्त होने के बाद अपना गांव वापस प्राप्त करने हेतु किया हुआ पत्राचार भी मिलता है। सौराष्ट्र युनिवर्सिटी के चारण साहित्य हस्तप्रत भंडार में कानदास महेडु के इस प्रकार के दस्तावेज संग्रहीत हैं। अपने आप को ब्रितानियों की कैद से मुक्त करने हेतु दरियापीर की स्तुति करते हुए रचे गए छंद भी मिलते हैं।

ब्रितानियों ने कानदास को कैद कर उनको गोधरा की जेल में रखा था और उनके हाथ-पाँव में लोहे की भारी जंजीरें डालकर अंधेरी कोठरी में रखा गया था। अतः कवि ने अपने आपको मुक्त करने के लिए दरियापीर की स्तुति के छंद रचे और ब्रितानियों के सामने ही उनके कदाचार तथा अनुचित कार्यों को प्रकट किया। इन छंदो में कुछेक उदाहरण उद्धृत हैं-

अचणंक माथे पडी आफत, राखत केदे सोंप्यो;
वलि हलण चलण अति त्रिपति थानक जपत थियो;
दुल्ला महंमद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भगो...

(अचानक मुझ पर मुश्किल आई और कैद किया गया जहाँ बंधनों के कारण हवा में हलनचलन अति कष्टदायी बन गया और साथ ही मेरा गाँव (पाड़ला) भी जप्त किया गया। इस प्रकार मेरा मन घनघोर चिंताग्रस्त हुआ। इस परिस्थिति में ताकत कहां तक चल सकती थी। दरियापीर मेरी सहायता कर मेरी जंजीर तोड़ो।)

भूडंड कोप्यो भूरो, धार केहडो तिण घड़ी;
लोहा रा नूधी दियां लंगर, कियो कबजे कोटडी;
तिणे परे जडिया सखत ताला, उपर पैरो आवगो 
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भगो...

(धरती के खंभे जैसा दृष्ट ब्रिटिश अमलदार मुझ पर कोपायमान हुआ उस समय मेरी स्थिति कैसी हुई? हाथ-पाँव में लोहे की जंजीरें बाँधकर मुझे अंधेरी कोठरी में डाला गया और सख़्त ताला बंदी के उपरांत चौकीदार तैनात किया गया है। अतः हे दरियापीर मेरी मदद कीजिए।) ब्रितानियों के सामने ही उनकी भाषा, वेशभूषा अभक्ष्य खानपान आदि का उल्लेख करतें हुए कवि कहते हैं-

कलबली भाषा पेर कुरती, महेर नहीं दिल मांहिया;
तोफंग हाथ ने सीरे टोपी, सोइ न गणे सांइया;
हराम चीजां दीन हिंदु, लाल चेरो तण लगो 
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भागो...

(जो समझ में न आए ऐसी (कलबली) भाषा बोलते है और कुर्ता (पटलून) पहनते हैं वे निर्दयी और निष्ठुर हैं। हाथ में बंदूक और सिर पर टोपी रखते हैं, हिन्दू और मुसलमानों के लिए जो अग्राह्य है उस गाय और सुअर का मांस वे खाते हैं और लाल चहरे वाले हैं।)

शाखा न खत्री नहीं सौदर वैश ब्रम व कुल वहे;
हाले न मुसलमान हींदवी, कवण जाति तिण कहे,
असुध्य रहेवे खाय आमख, नाय जलमां होय नगो 
दुल्ला महमंद पीर दरिया, भेर कर बेडिय भागो...

(जिसके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे कर्म नहीं है। हिन्दू या इस्लाम धर्म को मानते नहीं हैं, उसे किस जाति का मानना चाहिए। वे ब्रिटिश अपवित्र रहन-सहन, भ्रष्ट करने वाले और मांसाहारी है और निर्लज्जता से जल में नग्न स्नान करते हैं।)

इस तरह, कवि ने पाँच भियाखरी छंद, नौ गिया मालती छंद और एक छप्पय की रचना कर ब्रितानियों की उपस्थिति में दरियापीर की स्तुति की। लोक मान्यता के अनुसार इस छंद को बोलते समय तीन-तीन बार कानदासजी की जंजीर टूट गई। किन्तु लोक मान्यता को हम ज्यादा महत्व न दें फिर भी यह घटना ब्रितानियों के सम्मुख ही उनके कदाचार, अत्याचार और असंस्कारिता को खुले आम प्रकट करने की कवि की हिमम्मत, उनकी निडरता और सत्यप्रिय स्वभाव की प्रतीति कराती है।

ग्यारह मास की जेल के बाद कवि कानदासजी पर कानूनी कारवाई हुई, उनको प्राणदंड की सजा हुई, उनको तोप के सामने खड़ा रखा गया किन्तु तोप से विस्फोट नहीं हुआ। इससे या और कुछ कारण से कवि को ब्रितानियों ने मुक्त किया, उनका पाला गांव वापस नहीं किया।

सजा मुक्त हुए कानदासजी को वडोदरा के श्री खंडेराव गायकवाड़ ने अपने यहाँ राजकवि के रूप में रखा। उत्तरावस्था में उनका मान-सम्मान वृद्धि होने पर लूणावाड़ा के ठा. दलेलसिंह ने संदेश भेजा कि आपको पाला गांव वापस देना है, उसे स्वीकार करने हेतु पधारकर लूणावाड़ा की कचहरी पावन कीजिए। अलबत्ता दलेलसिंह ने 1857 में ब्रितानियों को मदद कर मातृभूमि के प्रति गद्दारी की थी, इसीलिए, कवि ने गांव वापस प्राप्त करने के बजाए उपालंभ युक्त दोहा लिखकर भेजा-

"रजपूतां सर रूठणो, कमहलां सूं केल;
तू उपर ठबका तणो, मारो दावो नथी दलेल"

इस तरह कवि ने व्यंजनापूर्ण बानी में दलेलसिंह को अक्षत्रिय घोषित किया, क्षत्रिय को डाँटने का चारण का अधिकार है।

कानदास महेडु ने सर्वस्व को दाव पर रखकर मातृभूमि को आजाद करनें के प्रयत्न किये हैं। इसी कारण से ही ब्रितानियों ने स्वातंत्र्य संग्राम के दौरान कवि को कैद में रखकर उनको भारतीय प्रजा से अलग कर दिया गया ताकि वे काव्य सृजन द्वारा समाज में तद्नुरूप माहौल का निर्माण कर न सके।

ब्रिटिश सरकार ने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता के बाद तुरंत हिंदुस्तान में हथियार पर पाबंदी लगा दी और उनके लिए अलग कानून बनाया। इसकी वजह से क्षत्रियों को हथियार छोड़ने पड़े। इस वक्त लूणावाड़ा के राजकवि अजित सिंह गेलवाले ने पंचमहाल के क्षत्रियों को एकत्र करके उनको हथियारबंधी कानून का विरोध करने के लिए प्रेरित किया। सब लूणावाड़ा की राज कचहरी में खुल्ली तलवारों के साथ पहुँचे। मगर ब्रिटिश केप्टन के साथ निगाहें मिलते ही सबने अपने शस्त्र छोड़ दिए और मस्तक झुका लिए। सिर्फ़ एक अजित सिंह ने अपनी तलवार नहीं छोड़ी। ब्रिटिश केप्टन आग बबूला हो उठा और उसने अजित सिंह को क़ैद करने का आदेश दिया। मगर अजित सिंह को गिरफ़्तार करने का साहस किसी ने किया नहीं और खुल्ली तलवार लेकर अजित सिंह कचहरी से निकल गए; ब्रितानियों ने उसका गाँव गोकुलपुरा ज़ब्त कर लिया और गिरफ़्तारी से बचने के लिए अजित सिंह को गुजरात छोड़ना पड़ा। इनकी क्षत्रियोचित वीरता से प्रभावित कोई कवि ने यथार्थ ही कहा है कि-

"मरूधर जोयो मालवो, आयो नजर अजित;
गोकुलपुरियां गेलवा, थारी राजा हुंडी रीत"

कानदास महेडु एवं अजित सिंह गेलवाने साथ मिलकर पंचमहाल के क्षत्रियों और वनवासियों को स्वातंत्र्य संग्राम में जोड़ा था। इनकी इच्छा तो यह थी कि सशस्त्र क्रांति करके ब्रितानियों को परास्त किया जाए। इन्होंने क्षत्रिय और वनवासी समाज को संगठित करके कुछ सैनिकों को राजस्थान से बुलाया था। हरदासपुर के पास उन क्रांतिकारी सैनिकों का एक दस्ता पहुँचा था। उन्होंने रात को लूणावाड़ा के क़िले पर आक्रमण भी किया, मगर अपरिचित माहौल होने से वह सफल न हुई। मगर वनवासी प्रजा को जिस तरह से उन्होंने स्वतंत्रता के लिए मर मिटने लिए प्रेरित किया उस ज्वाला को बुझाने में ब्रितानियों को बड़ी कठिनाई हुई। वर्षो तक यह आग प्रज्जवलित रही।

जिस तरह पंचमहाल को जगाने का काम कानदास चारण और अजित सिंह गेलवा ने किया। इसी तरह ओखा के वाघेरो को प्रेरित करने का काम बाराडी के नागाजी चारण ने किया। 1857 में ब्रितानियों के सामने हथियार उठाने वाले जोधा माणेक और मुलु माणेक को बहारवटिया घोषित करके ब्रितानियों ने बड़ा अन्याय किया है। सही मायने में वह स्वतंत्रता सेनानी थे। आठ-आठ साल तक ब्रितानियों का प्रतिकार करने वाले वाघेर वीरों को ओखा प्रदेश की आम-जनता का साथ था। इस क्रांति की ज्वाला में स्त्री-पुरुषों ने साथ मिलकर लड़ाई लड़ी थी। आख़िर जब वह एक छोटे से मकान में चारों ओर से घिर गए थे, तब उनको हथियार छोड़ शरण में आने के लिए कहा गया। सिर्फ़ पाँच लोग ही बचे थे। सब को पूछा गया कि क्या किया जाय? तो तीन लोगों ने शरणागति ही एक मात्र उपाय होने की बात कही। मगर नागजी चारण ने हथियार छोड़ के शरणागत होने के बजाय अंतिम श्वास तक लड़ने की सलाह दी। चारों ओर से गोलियाँ एवं तोप के गोलों की आवाज़ उठ रही थी। उसी क्षण नागजी ने जो गीत गाया, वह आज सौ साल के बाद भी लोगों के रोम-रोम में नई चेतना भरता है। जोधा माणेक और मुलु माणेक हिंदू वाघेर थे, इतना ही नहीं इस गीत को गाने वाला भी चारण था। इसीलिए ओखा जाबेली शब्द का प्रयोग हुआ था। आज उसका अपभ्रंश पंक्ति में 'अल्ला बेली' गाया जाता है। नागजी चारण ने हथियार छोड़ने के बजाय वीरता से मर मिटने की बात करते हुए गाया था कि...

ना छंडिया हथियार, ओखा जा बेली;
ना छंडिया हथियार, मरवुं हकडी वार,
मूलूभा बंकडा, ना छंडिया हथियार...

चारण कवियों कि यह विशिष्ट पंरपरा रही है कि मातृभूमि के लिए या जीवनमूल्यों के लिए अपने प्राण की आहुति देने वाले की यशगाथा उन्होंने गायी है, इनाम, या अन्य लालच की अपेक्षा से नहीं।

इस तरह चारण साहित्य के अध्ययन से पता चलता है कि विदेशी और विधर्मी शासकों के सामने चारण कवियों ने सबसे पहले क्रांति की मशाल प्रज्जवलित की है। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम से बावन वर्ष पूर्व 1805 में ही बांकीदास आशिया ने ब्रितानियों के कुकर्मो का पर्दाफाश किया था। जोधपुर के राजकवि का उत्तरदायित्व निभाते हुए भी बांकीदास ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध आवाज उठाकर अपना चारणधर्म-युगधर्म निभाया था। 1857 से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक शताधिक चारण कवियों ने अपनी सहस्त्राधिक रचनाओं द्वारा भारत के सांस्कृतिक एवं चारणों की स्वातंत्र्य प्रीति का परिचय दिया है।

1857 में स्वतंत्रता के लिए शहीद होने वाले तात्या टोपे, रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब फडनवीस के साथ साथ हर प्रांत में से जिन लोगों ने अपने-अपने प्राणों की आहुती दी है, उनका इतिहास में उल्लेख हो इसीलिए भारतीय साहित्य से या अन्य क्षेत्र से प्राप्त कर विविध आधारों का उपयोग करके नया इतिहास सच्चा इतिहास आलेखित हो यही अभ्यर्थनासह

भवरदान महेडु साता ( हाल- गांधीधाम )
9913083073.

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