साहित्य समाज का दपॅण...!
साहित्य को समाज का दपॅण कहा गया है । दपॅण का अथॅ होता है कि जो जैसा है वैसा ही दिखाऐ ।
साहित्य भी समाज जैसा है वैसा दिखाने की जब तक कोशीश करता है तब तक वो साहित्य काे दपॅण कहा जाता है ।
समाज में जो कुछ अच्छा-बुरा धटित होता है उसे देश का साहित्यकार अपनी द्दष्टि से देखता है और उसमें समाज का कितना हित है वो देखकर ही अपना घमॅ निभाता है ।
साहित्यकार का घमॅ होता है किसी भी व्यकित, किसी भी जाति किसी भी सम्प्रदाय का, किसीभी राजनीतिक दल का बिना महोरा या मुखोटा बने समाज के वतॅमान की मांग को घ्यान में रखकर वो अपनी बात ईस अंदाजमें कहे कि देश के हर व्यकित के हित की रक्षा तो हो ही साथ साथ कलम की पवित्रता भी बनी रह शके ।
कवि जो अपनी भावनाओं को कविता के माघ्यम से देश और समाज के सामने रखता है उसे जैसा लगता है वैसा वो लिखता है, कुछ उसकी कल्पना होती है मगर उस में कोई चेतना काम करती है जो उसे लिखने को प्रेरित करती है ।
साहित्यकार अपनी रचनाओं से समाज को नया चिंतन देता है, उस से वो समस्याओं का हल भी खोजता है ।
साहित्यकार अपने लेखन के माघ्यम से देश को समाज को नई दिशा देने के लिऐ समय समय पर संवेदना देता है ।
समाज में जो कुछ भी अनैतिक होता है उसके पीछे समाज के बुरे लोग जिम्मेदार नहीं होते जितने वे अच्छे लोग को निष्किय रह कर समाज की घीमी मौत को देखते रहते है ।
ईसी तरह ऐक साहित्यकार समाज के, देश के उत्थान में भी अहम भूमिका निभाता है ।
जय माताजी.
प्रस्तुति कवि चकमक.
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