*मितेशदान कृत रामायण महागाथा मांथी,,,,,*
*||रचना:ऋषि विश्वामित्र का पूर्व चरित्र ||*
*||कर्ता: मितेशदान महेशदान गढ़वी(सिंहढाय्च) ||*
*|| मुख्य छंद: मोतिदाम ||*
फरे मिथिला राज में ऋषि राम,
बैठे पय पान कीनोय आराम,
सतानंद होवे प्रसन्न प्रभावित,
राम को बात ऋषि सु कथित,
बड़े भागवाण हुवे तुव राम,
गुरु गुणवाण जिको बड़ो नाम,
प्रतापी पराक्रम वीर महान,
अतीत मही नृप होत विद्वान,
प्रजापति पुत्र प्रजापति कुश,
कुशानाभ नाम हुवे पुत्र कुश,
प्रपौत्र प्रजापति गाधि गण्यो,
महा विश्वामित्र शूरोय जण्यो,
प्रवेश कीनो कुटिरा मही राज,
हुते ध्यान लीन वशिष्ट बिराज,
जुवे तद राह विश्वामित्र तेह,
जुवे ध्यान से आँख में सु प्रमेह,
कीये नमवे शीश जोड़िय हाथ,
विवाणम बेठ वशिष्ट के साथ,
उच्चारित शब्द शुभा सुखकाज,
सखा सम दौउ मुखा स्मित सांज,
धेनु आह्वान किया कज देख,
सजाव छ व्यंजन धर्म सू रेख,
गुणा रूप काज कियो धेनु काम,
वशिष्ट कु आज्ञार्थ होव तमाम,
दिसे धेनु रूप चमत्कार भूप,
भयो मन प्राप्त इति क्षण भूप,
कहे सोहति धेनु द्वारेय भूप,
न सोहत वासिय वनेय भूप,
वशिष्ट को आप सहस्त्र मुद्राण,
कीनो भूप धेनु तणो धनदाण,
इति सुण भासत मुनि वशिष्ट,
कहे राज जीव मुजी एक इष्ट,
न देवात काम धेनु तुज राव,
कहे इति आश्रम की गुणराव,
तदे मन क्रोध भयो भूप रिष्ट,
मति चकचुर रह्यो नही शिष्ट,
कहे मार के लाव धेनुय साथ,
सभी सैनिका गण मारत हाथ,
विवश हुई धेनु को मन आस,
वशिष्ठ रहोय मुनि मुज पास,
वशिष्ट कहे गौ विवश है मन्न,
नही श्राप आप सकू उन दन्न,
इति क्षत्रिया कुळ होव महान,
नही श्राप पापित मुनि सभान,
विवश धेनु कहे आज्ञा दो मुज,
सवे सैनिका भूप आपु हु सूज,
पतावट पार करू नष्ट राज,
करुय विनाश दळु सुख काज,
*(विवश कामधेनु को वशिष्ट मुनि ने युद्ध करने की आज्ञा दे दी,उसके बाद काम धेनु ने अपना पूरा बल लगाके युद्ध के लिये तैयार हो गई,)*
*मनहर कवित*
*(कामधेनु ने क्या किया ?)*
क्रूरता की काया को बनायी ऐसी माया किया,
उत्पन्न सेनाको कर सेना से लड़ाया है,
लड़ी पूरी शौर्य साथ घड़ी सेना पड़ी माथे,
विश्वामित्र सेना उन्हें भोमे में दड़ाया है,
शक हुण बर्वराव यवन कांबोज किया,
नई सेना को भी उस युद्ध मे गड़ाया है,
लड़ी ऐसी खीज से की दड़ी फ़ौज चडी माथे,
कामधेनु शकत्ति सह युद्ध चकराया है,
*(विश्वामित्र का सामना )*
अहंकार लिए अति युद्ध का सामना किया,
सेना गायु तणी माया पल में भगाई है,
कामधेनु तणी सेना झुकायी सामना दिया,
पार्थ कर्ण युद्ध जैसी अगन लगाई है,
पुत्र सो के कोप से लड़ाई मरे एक बचा
श्राप दिया वशिस्ट ने कीनी भरपाई है,
कुळ से कुळ को छेड़ा मति मुळ ध्यान किया,
राज पुत्र हाथ दिया दुख चोट खाई है,
*(सेना तथा पुत्रों के के नष्ट हो जाने से विश्वामित्र बड़े दुःखी हुये। अपने बचे हुये पुत्र का राजतिलक कर वे तपस्या करने के लिये हिमालय की कन्दराओं में चले गये। वहाँ पर उन्होंने कठोर तपस्या की और महादेव जी को प्रसन्न कर लिया। महादेव जी को प्रसन्न पाकर विश्वामित्र ने उनसे समस्त दिव्य शक्तियों के साथ सम्पूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया।)*
*|| विश्वामित्र ओर वशिष्टमुनि का युद्ध ||*
भूप गयो भटकी,शस्त्र सर मुनिवर मारण,
भूप गयो भटकी,क्रोध कर अतिबल कारण,
भूप गयो भटकी,लगण मन युद्ध लगाई,
भूप गयो भटकी,सगण नही कदी झुकाई,
क्षत्रिय बल से थियो सज्ज,विश्वामित्र वन वीर,
शस्त्र सामने शास्त्रको,धरियो क्रोध अ धीर,
अभिमाने अकळाय,उठायो अग्नि अस्त्र है,
मचीयो कुटिरा माय,सजायो तीर शस्त्र है,
द्रसिये भळका दोट,लगाये मुनिगण लोकन,
चिहकारी भर चोट,रक्त नही पावत रोकन,
अग्निअस्त्र से आटक्यो,घमासान युद्ध घोर,
बलसे कुटिरा बाळीयों ,शुरुवाती कर शोर,
*(विश्वामित्रने जो प्रयोग किये परेशानी उद्भवित की जिन्हें वशिष्ठ जी ने अपने मारक अस्त्रों से मार्ग में ही नष्ट कर दिया। इस पर विश्वामित्र ने और भी अधिक क्रोधित होकर दूसरे अस्त्रों का भी उपयोग किया)*
क्रोधी अति कहर्यो,दण्ड और जूंभण दारण,
वज्र क्रोंच वहर्यो,धर्मचक्रा कर धारण,
विष्णु चक्र वायव्य,पाश वरुणा ब्रह्म पटके,
कालचक्र कंकाल,विधाधर काल से वटके,
मूसल मोहन मानवा,पीनाक धर कर पोगियो,
युद्ध करण क्रोधी अळ्यो,विश्वामित्र योगियों,
*(विश्वामित्र के इस दुष्ट कृत्य के कारण,कुटीरा जल गई और सब ब्राह्मण गण भी दु:खी हो गए,सब नष्ट हो गया और ब्राह्मण बल को साबित करने के कारण और अहंकारी अभिमानी विश्वामित्र राजा को परास्त करने के लिए वशिष्ट मुनि ने अपनी विद्या से ब्रह्मास्त्र धारण कर लिया)*
जदो धर ब्रह्म तणो अस्त्र हाथ,
तदो भयकार मच्यो सुर साथ,
नभे अंधकार समी झर वीज,
सभे हितकार रिजावत खीज,
खीजे मुनिराज कियो दुष्य कोप,
हला मच जावत आग धरोप,
सभे रिजलावत मुनि को देव,
मने पछतावत भूप हृदेव,
न खोवत जोवत आपत मान,
धरा पर जावत कोई न जान,
लियो परते अस्त्र ब्रह्म महान,
थियो भूप मीत हुवोय सुभान,
*("पराजित होकर विश्वामित्र मणिहीन सर्प की भाँति पृथ्वी पर बैठ गये और सोचने लगे कि निःसन्देह क्षात्र बल से ब्रह्म बल ही श्रेष्ठ है। अब मैं तपस्या करके ब्राह्मण की पदवी और उसका तेज प्राप्त करूँगा। इस प्रकार विचार करके वे अपनी पत्नीसहित दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवन-यापन करना आरम्भ कर दिया। उनकी तपस्या से प्रन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें राजर्षि का पद प्रदान किया। इस पद को प्राप्त करके भी, यह सोचकर कि ब्रह्मा जी ने मुझे केवल राजर्षि का ही पद दिया महर्षि-देवर्षि आदि का नहीँ, वे दुःखी ही हुये। वे विचार करने लगे कि मेरी तपस्या अब भी अपूर्ण है। मुझे एक बार फिर से घोर तपस्या करना चाहिये।”)*
*🙏~~~मितेशदान(सिंहढाय्च)~~~🙏*
*कवि मीत*
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