*||रचना - रामायण महागाथा ||*
*|| कर्ता - मितेशदान महेशदान गढ़वी(सिंहढाय्च) ||*
*(प्रारंभ)*
*{ मुख्य छंद - मोतिदाम }*
*दोहा*
*कथू रामायण कोडसे, रिदै धरि रघु राम*
*मीत चवेगुण मानमें,नमन कीये रघु नाम*
*मर्यादा धर मितवो, रह्यो सदा रघुराम*
*लड़ कर जीत्यो लंकने,नमन तोरा सत नाम*
*गण पति गावू गुणला,परथम तू प्रतिपाळ,*
*मीत गजोदर वंदना,सुख आपो सुंढाळ,*
*{ बाल काण्ड }*
मनुय महान कोशलको देश,
हेज्ञानी धुरंधर मान गुणेश,
अपार गतिकाल राजस रायो
नमो भाणकु वंशको सुररायो, (1)
नृप दस्रथ हुओ नेक रायो,
कथायो इ साचोय जायो सवायो,
गुणाधी सुखाधीय साजेय पुरो,
सनातन राजन काजेय सुरो,(2)
प्रजा पालका सुखदा प्राण प्यारो,
दयालु कृपालु मनु नंद न्यारो,
नहीं मोहके लोभके भाव कारो,
प्रति गुण दाखेय राज दुल्हारो,(3)
नमे नित दिनंकरा जल धारी,
रटे नाम नारायणा जाप सारी,
व्रदानम दानम याचु सुराणं
तुजाणं तुजाणं तुजाणं तु जाणं,(4)
निरख्खिय नैणय केश सफ़ेद,
नरंद गूढा पत जाण न भेद,
हयो विचलित चिंतातुर मन,
गयोय वशिष्टत पास राजन,(5)
भयो भय उंचळ में एक मोटो,
निकट अणे अंत वंश विखोटो,
अभाव हुतो पुत्रको एक श्रेष्ठ,
संकल्प कीधा यग्न पुत्रययेष्ठ,(6)
उपाय धरी अश्वमेघ ज किन्नो
धरियु सरियु तट श्यामश्व दिन्नो,
मंत्रणा सुण सज्जन ध्यान धरे,
शुभ काज तणा मंत्राचार करे,(7)
मनस्वी तपश्वीय पंडित ज्ञाता,
वशिष्ट ऋषि विदवान गुणाता,
ऋषि भ्रात ऋंग सखात पधारे,
जपे जाप नारायणाय उचारे (8)
गुंज्यो नाद आभेय वेदांग ज्ञान,
सुधासु सुगंधि समिधा उद्यान,
उथापन किधाय यग्न हवन,
गोदान दीधाय प्रसाद यवन, (9)
परसाद दियाहाथ मेय राणीको,
परिणाम प्रताप ग्रभ जाणीको,
हुलास आनंद अति उर माही,
तीनो अरधांग सुखागण पाही,(10)
{ राम जन्म }
चैत्तर मास शुक्ल पख नोम,
भयो तेज कारी गगन वियोम,
करक उदत्त हुता राम आयो,
तेजोमय तेजन श्यावर्ण छायो,(11)
कोशल्याय नन्दन राम दुलारो,
भरत कैकई जसरूप न्यारो,
रघुनाथ को भ्रात लक्षमण व्हालो,
सुमिताय शत्रुघ्न बालक न्यालो,(12)
उमंग आनंद किया चहु दिश,
बण्या रघुनाथ रुपा जगदीश,
जनम धर्यो मरजाद सु काजे,
प्रति पालका सुख राचत राजे,(13)
किया गान गांधर्व नाचत नार,
देवायत दाखत नैण पसार,
दिए चारणा शुभाशीश महान,
प्रजात पुराया उपाजत धान,(14)
वेदा भरपूर भण्यो रघु राम,
गुणा सज्जशस्त्र थियो घनश्याम,
पारं गत लागत ज्ञान अपार,
सुलक्षण मान प्रति भरतार,(15)
व्यथा दसरथ गति वंत जाण,
वृद्धापण डापण जातय प्राण,
विवाह द्रकाह कीनो मुज बाल,
मुजो राज हाथाय धारत काल,(16)
पधारत ज्ञान तणा विदवान,
धरी भगवाभेख कुण्डळ कान,
उजालाय मान हतो मुख तेज,
ऋषि विश्वामित्र बेठासन सेज,(17)
अहोभाग राज कथात दीदार,
धरा अयोध्याय किधाय ते तार,
मनैच्छा जतावो करू काय सेवा,,
अति भागशाली गणु दैव जेवा,(18)
ऋषिराज के राज तो धन्य वंश,
पुनीत सोजानत मानुय अंश,
वचन मागुय आदन वांछित,
नादेव तोजात हु पाछो कथित,(19)
कथे ऋषि राज हु चाहुय राम,
उपद्रव दानव मारण काम,
जगन जगावुय जापन शकत्त,
सुबाहुय मारीच नाख रकत्त,(20)
उत्तर दिना नमने मुनीश्रेष्ठ,
अचंब विचंब हुआ काज जेष्ठ,
प्रकोपन कोपत होव अजाण,
न जाणत राम दैेता असुराण,(21)
हियो मन खूब तणो पुत्रमोह,
किता नाह आपत राम हु कोह,
ऋषिगण होवत क्रोध अतिय,
मुखा बध्द देखत गुण जतिय,(22)
अनिष्ट कु जानत नाह सभे,
दरबार मुंझाय विचार तभे,
वसिष्ठ उपाय दिनों दशरथ,
कहे तुव राम सदा समरथ,(23)
कल्याण मनोरथ होवत ज्ञान,
प्रवीण अतुल गुणांकन ध्यान,
रघुकुल रीत न होव कलंकित,
पावत पार वचन सु अंकित,(24)
कहीबात जाणीय साची अधध,
पयं पेय जोड़ी कहे दसरथ,
लिया राम संगे लछमन भ्रात,
धरे शुभाशिष चले रघुनाथ,(25)
अदभुत रमणीय लागत भ्रात,
चले ऋषि राम लक्षमण साथ,
उबारण लोकन पातक नाथ,
तरकस हाथ धरी रघुनाथ,(26)
शोभा सु निरंगि सुचंगीय साजे,
लतायु नवेली घटा घोम लागे,
सरयू तट ज्ञान गुरुय अपावे,
सिखावे अतिबल मन्त्र जपावे,(27)
धरी स्नान के ध्यान पावत ज्ञान,
गुरु बात भाख तेजामुख मान,
गुरु सेव सारत घ्यान परिपुण,
पोढत राम धरीय सेजातृण,(28)
तेजो मय ताप लिए परताप,
थियो परगट्ट जपाताय जाप,
वेला फूल फोरमता वन माय,
कलबल शोर मच्यो खग काय,(29)
निशा वित प्रौढ़ उठे रघु राम,
चले मीत भ्रात ऋषि संग काम,
दखावत देवन काम कुटीर,
ऋषि मुख जानत बात सुधीर(30)
{ कामदेव आश्रम में प्रवेश }
(कामदेव आश्रम को देखने के बाद श्री राम और भ्रात लक्षमण विश्वामित्र से कामदेव आश्रम का महात्म्य पूछते है, तब विश्वामित्र उत्तर के रूप में कामदेव आश्रम की रचना कैसे हुई ये बताते है,)
* || सवैया ||*
देखत सोह अतिय मनोरम लाग विशेष जगा धर त्याही,
जापन ध्यान किनोय महादेव भय भीनोय इन्द्रा मन माही,
निश्चय ठान लिनोय पुरंदर भंग करात शिवा तप कीजे,
लोचन त्रीज खुला कर काम देवा तन खाख कियो क्रुद्ध खीजे,(1)-(31)
ध्यान मगन भयो शिव शंकर मुंडन माल कसी कंठ धारी,
जटा धारणी अंग भष्म लागवी,गले वासुकी बेठे चर्म पथारी,
मारत बाण इ काम तणा काज भंग कियो मीत मोहन भीजे,
लोचन त्रीज खुला कर काम देवा तन खाख कियो क्रुद्ध खीजे,(2)-(32)
मोत न होत देवा काम कारण,मारण अंग विखुट्ट कियो तन्न,
जारण इ दन दैव तणो तन आत्म को नह बाळ दीयो मन्न,
नाम अनंग किताय कामा तब आश्रम को नाम कामय थीजे,
लोचन त्रीज खुला कर काम देवा तन खाख कियो क्रुद्ध खीजे,(3)-(33)
(कामदेव आश्रम में विश्राम के बाद दुसरे दिन राम,लक्षमण और विश्वामित्र ऋषि ने सुबह उठकर नित्य की तरह सूर्य देव को पूजन,अर्चन के बाद ध्यान किया और आगे चलने लगे...)
रघुनंदन नैण नूरा तेज राय,
उठी प्रौढ़ ध्यान कियो सुर राय,
चले रघुराम ऋषि संग भ्रात,
नदी कर पार दीठि वन्न वाट,(34)
सुगंधिय प्रौढ़ सु शोभे लतायु,
फुले पान डाळ तरु वेल छायु,
कलाबल खग तणो कलकाट,
नही त्याही तेज घाटो अंधकाट,(35)
(ताड़का वध)
समेदैत काल तणो अज वास,
अति वनगाढ़ हुतो नाही पास,
शुशोभित शोभत पथ रुडाय,
नही क्रूर मानुश दैत कुड़ाय,(36)
फेलाण किरत पुरे जग व्याप,
हुता धन धान परिपुण माप,
प्रजा सुख भोगत मान अपार,
सबे कोय आवत काज वेपार,(37)
नहीं देख सुख तणो किरतार,
किते नष्ट राजय ताड़क नार,
किधा परजा खाध लोक हेरान,
बनाव दीना अरणक वेरान,(38)
न होवत नार गुणी बहु सारिय,
राखस सुन्द तणी अरधांगिय,
मारीच मात तणी दैत डाकण,
राखण बल सहस्त्र गजागण,(39)
अति बलवान हुती कुळ नार,
किया खाध पान प्रति लोक मार,
भयो मन भय सभे लोक गाव,
नहीं कोउ वन्न मही रख पाँव,(40)
भयो विचलित मने रघु राम
चिंतातुर होवत मारण काम,
गुणी सद सोहत नाह सबल,
सदा होत नारिय हार दुबल,(41)
(जब , रामने कहा की,गुरुदेव नारी तो सदाय कोमल और दुर्बल होती है,तो ये नारी में हजारो हाथियों का बल कैसे,तब ऋषि विश्वामित्र ने उत्तर में राम को रहष्य सुनाया)
सुकेतु गुणा मान होवत यक्ष,
गुमान नहीं अभिमान समक्ष,
हुता सब सुख सदा सनमान,
हुती नाही पुत्र तणी एक शान,(42)
कटी जपतप कीनो चोमुखाय,
दटी ऋतुकाल अळ्यो योगिकाय,
कीनो परसन्न वेदा रच नार,
दिनों वरदान हुए पुत्र नार,(43)
कुले बलवान हुती कुलनार,
पिता काज बल दिनो कुलनार,
गजा बल ब्रह्म दिनॉय हजार,
कुला राखसस वरि सुन्द नार(44)
कुखे जनम्योय मारीच सुरोय,
कु कारण दैत हुतोय पुरोय,
घणो अपराधी उपद्रीय जाण,
मुनि गण को त्रास आपत पाण,(45)
कुलखण काज ऋषि देत श्राप,
अग्सत्यय दंड दिनों इण पाप,
होजावत राखस क्रोधी कुमार,
नपावत सुख तणो मन सार,(46)
अजाण कु कामण सुंद सु क्रोध,
कोपाय हुतो जाण द्वन्द कोजोध,
गुढ़ापत मान सु आपत श्राप,
कीनो भष्म सुंद तणो तन्न जाप,(47)
पति मोत कारण ताड़का नार,
हुई मती क्रोध ऋषि पर वार,
सलिल को छंट दुति किय नष्ट,
लियो वेर मन मही रूप कष्ट,(48)
कथीबात ध्याने सुणे रघुराम,
किते परणाम जोड़ी करहाम,
लिनो द्रढ़ निश्चय धारण मन्न,
किनो वध ताड़का जारण तन्न,(49)
उबारण लोक प्रति वन पास,
मेटावण नार तणो हर त्रास,
विधिलेख सत होव निशदिन,
इति सुख काज घटावण हीन,(50)
(विश्वामित्र ऋषि ने ताड़का का रूप कैसे नष्ट हुआ और उसमे हजारो हाथीओ का बल कैसे आया ये राम को बताया और कहा की ताड़का ऋषिओ का आश्रम नष्ट करने पर तुली है तो ताड़का के वध के कारण ही में तुम्हे यहा लेके आया हु,)
|| ताड़का वध ||
{ छंद - पद्धरि }
प्रति पल घटत्त घटना अनेक,
गुरुमुख वाचा धर करण टेक,
निश्चय किन्नो द्रढ़ सकळ सेव,
मारण दैेत्या पल पल सदैव,(1-51)
प्रत्यंचा सणणण चढत डोर,
खींचत दोरी टणणण टकोर,
हहकार भयो वन चका चौंध,
अरणक गाढ़ विकराळ क्रोध,(2-52)
खलबल हो जावत वन वेरान,
भय भीत पशु भागत खग
हैरान,
सुण कर्णम कलबल दुष्ट नार,
विचलीत मन होवत गति अपार,(3-53)
निरखत रघु राजन धनुष धार,
अकळ्यो मन युद्धन काज नार,
झपटी झटपट दौड़त विकार,
निकटे दूर निरखत मृत्यु द्वार,(4-54)
देखत लछमन कु रूप नार,
भासत निज भ्रातय रंग सार,
कद होवत ताड़ समो निशाच,
हिंसक नारी पापी
पिशाच(5-55)
विकराळ देह धर दूत्तगाम,
वीजळी सम झपटी वे हराम,
ततकार बाण कर तीर छोड़,
सणणण सटाक दोरी मरोड़,(6-56)
धक धधक लाल लहू वहत खेद,
वख छिन्न काट तीर कियो छेद,
पीड़ धरिय नार पटकइ धरण,
चीख करत देह छोड़त मरण,(7-57)
परसन्न होव गुरु राम काज,
पापन काटे थापन सराज,
मंगल गुण गावत मीत नीत,
जूठन दळ पावत सत्य जीत,(8-58)
सुगंधिय प्रौढ़ सुसाजत वन,
खिले फूलपान लतायु मगन,
मधुकर मध सूरा रस पान,
दिनंकर जाग उठो तेज मान,(59)
कीनो दूर कष्ट मेटावण दैत,
हरी हर राख सबे पर हेत,
सुखा सेवकार जुगापर जाथ,
जयो रघुनाथ जयो रघुनाथ,(60)
(विश्वामित्र ने राम को जो काम दिया था की दुष्ट ताड़का का वध करदो और इस जगा के आस पास के लोको को शांत और समृद्ध जीवन प्रदान करो,तो उस आज्ञा का पालन करने के बाद ऋषि बहोत प्रसन्न हुए)
{ विश्वामित्र द्वारा राम और लक्षमण को विविध अलभ्य शक्तिशाली शस्त्रो का दान }
{{ शस्त्र प्रदान }}
सरोवर तट दियो अस्त्रदान,
ऋषिराज राम दियो वरदान,
त्रुठ्ये ताड़का वध कारण मन्न,
उठेहाथ अस्त्र अलभ्य दन्न,(61)
पराक्रम खूब दिखायो ते राम,
किरतिय मेह व्रसायोय नाम,
दिना हथियार करे अलभय,
हुता जगमेय तुही सुरजय,(62)
हथियार कज होवे बलवाण,
परास्त न होव तु राम सुजाण,
कु देवात यक्ष कुमाणस दैत,
कुराखस होव के होव कु प्रेत,(63)
दंडय काल पुरंदर धर्म,
इतिचार अस्त्र तणो जाण मर्म,
प्रजासुख काजन देवन दान,
कल्याण कृपावण राखण शान,(64)
अतिरिक्त दान दिना अस्त्र चार,
शिवाशूल वीज शिराब्रह्म हार,
ब्रह्मासम एषिक शस्र पूजंत
दिया दुष्ट मारण चारे दिगंत,(65)
दिगंबर दिन दटे दरपाप,
दिशाशूल दार अकालन काप,
शखरीयन मोदकी दान गदा,
शकती समपुरण दैव सदा,(66)
सुखी अशनीय घीलीय पिनाक,
धरीकर शस्र सुसज्ज दिनाक,
नारायण आगन हय वायन
सहा क्रोंच सस्त्र प्रसन्न पावन,(67)
अतिजस पाश दिते कर लाज,
प्रति दूस नाश किते हरकाज,
धर्मकाल पाश वरुणय पाश,
बंधी कर दुष्ट अति बल नाश,(68)
अतिय अकाल कंकाल विकाल,
खडग मूसल त्रिशूल कपाल,
किंकणि धारण मार असुर,
प्रचुर प्रहरण दैत्यम क्रूर,(69)
विद्याधर धारत शस्त्र विभिन्न,
दिते तव हाथ सभे अजदिन,
विलापन सोम्य प्रशनम माद्य,
प्रस्वापन वर्षण गन्धर्व अाद्य,(70)
मानवा तामस सौम् पैशाच,
अद्वितीय अस्त्र विद्याधर याच,
दिखावण तेज प्रभास्त्र अपार,
करेअंत दैत दिसे हथियार,(71)
धरुसोम शस्त्र विशेषय शीत,
शिशिर प्रयोजन मानव हीत,
दूजा शस्त्र दारुण होवत ताप,
अकाळत मूर्छित शत्रुय काप,(72)
(इतना कह कर महामुनि ने सम्पूर्ण अस्त्रों को, जो देवताओं को भी दुर्लभ हैं, बड़े स्नेह के साथ राम को प्रदान कर दिया। उन अस्त्रों को पाकर राम अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्होंने श्रद्धा के साथ गुरु को चरणों में प्रणाम किया और कहा, “गुरुदेव! आपकी इस कृपा से मैं कृतार्थ हो गया हूँ।)
*छप्पय*
दिया शस्त्र कर दान,मान खूब रामा तुज पर,
किया सज्ज सनमान,ध्यान दिनकर कोधरकर,
वरण रूप धर श्याम, राम रघुनंद आया,
धरण भूप मरजाद,याद अज करण द्रसाया,
असुरा मारण हाथमें, शस्त्र धरे रघुराम,
धरणीधर वंदन वारणा, मीत रटेतव नाम(73)
मन मुख धारण स्मित,हेत रामा दरसावे,
शस्त्र प्रहारण रीत,ऋषिवर सत समजावे,
शक्ति साथ सह भेद,वेद सब ज्ञान जणावन,
सदा राख नित टेक,एक मरजाद निभावन,
असुरा मारण हाथमें, शस्त्र धरे रघुराम,
धरणीधर वंदन वारणा, मीत रटेतव नाम(74)
परत शस्त्र फरताय ,दिया कर दान प्रजाणं,
हणण दैत हरताय, किया वर दान सुजाणं,
काट काट कर नष्ट, दैत को पंथ हटावण,
मती दैत कर भ्रष्ट, जगत को पाप रटावण,
असुरा मारण हाथमें, शस्त्र धरे रघुराम,
धरणीधर वंदन वारणा, मीत रटेतव नाम(75)
सत्यवान शूल अस्त्र, शस्त्र धर जूठ निवारण,
सत्यकीर्ति उपलक्ष्य,लक्ष्य सर कष्ट विदारण,
पराड मुख प्रतिहार,दैत मुंडन छेदन तू,
अवान्मुख हथियार, द्वार अजरा भेदन तू,
असुरा मारण हाथमें, शस्त्र धरे रघुराम,
धरणीधर वंदन वारणा, मीत रटेतव नाम(76)
(इन अस्त्रों को देने के बाद गुरु विश्वामित्र ने राम को वे विधियाँ भी बताईं जिनके द्वारा प्रयोग किये हुये अस्त्र वापस आ जाते हैं, चलते चलते वे वन के अन्धकार से निकल कर ऐसे स्थान पर पहुँचे जो भगवान भास्कर के दिव्य प्रकाश से आलोकित हो रहा था ,)
*(प्रकृति के दुहे)*
गगन कलाबल गुंजतु, गावत पंखी गीत,
सौगम फूलडे शोभती,मलक महकतु मीत,(77)
झाझा लीला झाड़वा,पवन हेम प्रतीत,
धरणी ओढ़ण धारती,मलक महकतु मीत,(78)
तृण भींजेल तांतणा,सुरम्य साजत शीत,
प्रकृति ना प्राणमा, मलक महकतु मीत,(79)
सवार शोभा सुवर्णी,रमणीय राचत रीत,
प्राण पोषण पावने,मलक महकतु मीत,(80)
(विश्वामित्र ऋषि, रामजी और लक्षमण जी घोर वनमें से बहार निकले तब एक आश्रम देखा,और प्रकृति का सौंदर्य निहारके आगे आश्रम में गए,)
रामजी: मुनिवर यह आश्रम यहा स्थापित है,किसका है,?
विश्वामित्र ऋषि: यह आश्रम सिद्धाश्रम है,यह आश्रम की बहुत पुरानी कथा है
(विश्वामित्र ऋषि ने आश्रम की कथा सुनाइ)
*|| सिद्धाश्रम की कथा ||*
*|| वामन अवतार ||*
*|| छंद रेणंकी ||*
समकाल वीते सत परबळ धर पर नरपळ बली एक दैत्य हुए,
वृद्धि कज बल बहु पावत जग भय इन्दर मती मन चैत्य जुए,
अनुठान जगावण यग्न मगन बली सर्व श्रेष्ठ दानीय गणे,
अवतार अळ्ये धर सकळ धुरंधर दैव तार वामन बणे,(1-81)
चिंतातुर भय भर भीतर अनुसर जल मही दैेवन गमन किते,
अळ अज भगवन तव कष्ट निकट दट कज अही सव याचत हिते,
थर थर थावत तन मन भय इंन्दर परभंजण
प्रति पल्ल प्रणे,
अवतार अळ्ये धर सकळ धुरंधर दैव तार वामन बणे,(2-82)
,(प्रभंजण-पवन)
भाखत मुख शब्द विराट महा वीर दानीय दैत उदार भयो,
जावत नहीं याचक दान विहोणो मन धर टेक अपार रयो,
यज्ञादि तपस्या तेज कार इति कारण दैवन मन फ़फ़णे,
अवतार अळ्ये धर सकळ धुरंधर दैव तार वामन बणे,(3-83)
रक्षण कज विष्णु सकळ भ्रमांड सबळ मनु दुति लघु देह धरे,
तेजस मय कीरत नयन मुख दरसत उच्चळ बली तद हरख भरे,
निरख़त लघु विप्र त्वरित बली भासत नमन सु लागत हरी चरणे,
अवतार अळ्ये धर सकळ धुरंधर दैव तार वामन बणे,(4-84)
त्रय पद धर याचत विप्र कथित कज गावन गुण हरी नाथ तणा,
सुण बात बटुक रूप हरी सम याचत उच्चळ मनु मुंझाय घणा,
दानी दन धरम धरावत धर महा दैवत दानम रखण प्रणे,
अवतार अळ्ये धर सकळ धुरंधर दैव तार वामन बणे,(5-85)
तद कद वैराट विप्र कर वरख़म नभ धरतल अड़ख़म बण्यो,
द्रख दैव अचंबन निरख़त रूप वीर लघु बाल विष्णु गण्यो,
नमने नव लोक नाथ कर जोड़ण नारायण दैतन दणे,
अवतार अळ्ये धर सकळ धुरंधर दैव तार वामन बणे(6-86)
गति वंत धर्यो नभ परथम धर तर सृस्टि तणो एक भाग गीयो,
द्वितीय धर्यो पाताल तले अळ नभ सह लोकन नाप लीयो,
उदार बली उछरंजण भासत तृत्तीय पद मु मथ्थ व्रणे,
अवतार अळ्ये धर सकळ धुरंधर दैव तार वामन बणे(7-87)
वरदान दिनों जस गावन परसन्न पावत दानीय शील बली,
सिद्धाश्रम थापन तय सिद्धि सब पामत ऋषि अही पाप जली,
जय जय हरी नाथन नारायण तव गुण मीत ध्यावत जगत जणे,
अवतार अळ्ये धर सकळ धुरंधर दैव तार वामन बणे(8-88)
(बली की दानशीलता देखके श्री हरी बली पर प्रसन्न हुए,और कहा यहाँ तपस्या करने वाले को शीघ्र ही समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होंगी।)
(उसी समय से यह स्थान सिद्धाश्रम के नाम से विख्यात है और बहुत से ऋषि मुनि-यहाँ तपस्या करके मुक्ति लाभ करते हैं।,
ऋषि विश्वामित्र ने भी कहा की में भी इस जगह पर यज्ञ कर रहा हु,किन्तु दैत्य राक्षसो नित्य हमारे यज्ञ में बाधा बनते है,)
(छंद : अर्ध मंडळ दोढो)
आश्रम राघव आविया,
इ सतकारे शोभाविया,
जल चरण पर छंटकाविया,
धरिया सकल सनमान, (1-89)
सव साथ भोजन खाविया,
पोढ़ण सेजो लाविया,
हरी नाम मुख समरावीया,
करिया गुरुवर ध्यान, (2-90)
दन उजळो द्वि उगियो,
रघु दैत मारण पुगियो,
सुशस्त्र कर पर धारियों,
इ सज्ज थ्यो सतवान, (3-91)
(आश्रम मा पहोंच्या ना बीजा दिवस नी सवार मा राम अने लक्षमण नित क्रमे भगवान सूर्य नारायण नी पूजा करी,आश्रम मा यज्ञ विधि चालु हती त्या आवी ऋषि मुनिओ ने प्रणाम करी,शस्त्र धारण करी सुबाहु अने मारीच ना वध माटे सज्ज थइ छ दिवस पछी हवन पूर्णाहुती थाय त्या सुधि उभा रही गया)
वेदाय मंत्रो जापिया,
जव हवन घी होमाविया,
जप नाद गगने गाजिया,
घोळ्याय देवो गान, (4-92)
धरती रमण ले भामणा,
नभ तार लेय वधामणा,
मन जगन माथे जामणा,
सुरता सजेलि शान, (5-93)
पांच वित्ये दिन सुखभर,
नाह विघ्न कोई दरीदर,
समय वसमो छठे दनपर,
यज्ञ सौ गुलतान, (6-94)
गरज कळळळ वीज चमकी,
धरा हळबळ धार धमकी,
पवन परचंड तेज टमकी,
नाद रणक्या कान, (7-95)
हाड अस्थि मांस झरता,
फ़ौज देतो संग फरता,
विघ्न संकट कमण करता,
रक्त करता पान, (8-96)
किये सर संधान लखमन,
तीर ताकत फौज दळ तन,
छौड़ मानवअस्त्र खननन,
हाटक्या अह्रींमान, (9-97)
(अह्रींमान-ईश्वर विरुद्ध,शैतान)
कौशल अतिबल राम कोप्यो,
देह मारीच तीर खोप्यो,
योजने सो मार फेक्यो,
रखण यज्ञे मान,(10-98)
आग्नेय अस्त्र छोड़ियों जब,
अगन घेरो खोडीयो तब,
जारियो सुबाहु अध झब,
पवन धर मीत वान, (11-99)
करियो यज्ञ सु सफळ काज,
सरियों सत मर्यादा समाज,
नमिया ऋषि मुनि सव रघुराज,
पुरषोतम सब जगजान,(12-100)
(निर्विघ्न यज्ञ समाप्त करके मुनि विश्वामित्र यज्ञ वेदी से उठे और राम को हृदय से लगाकर बोले, “हे रघुकुल कमल! तुम्हारे भुबजल के प्रताप और युद्ध कौशल से आज मेरा यज्ञ सफल हुआ। उपद्रवी राक्षसों का विनाश करके तुमने वास्तव में आज सिद्धाश्रम को कृतार्थ कर दिया।”)
{धनुष यज्ञ के लिए प्रस्थान}
समापन जाप सफल कियो,
ऋषि रघु राजन मान दियो,
कथि बात यज्ञ धनुष तणी,
महावीर आवन राज धणी,(101)
पूछे रघुवीर महातम बात,
विशेषत होव धनुष अज्ञात,
उद्देश शु राख स्वयंवर काज,
शोभेय मिथिला सजावत राज,(102)
मिथिलेश उपाधी नृपाय तणी,
चलीआई चिरंकाल नाथ प्रणी,
सदा सोहनीयम प्राचीन काळ,
प्रथा होवनीय निरंतर पाळ(103)
आमंत्रित किये इष्ट देव सभी,
जगावन यज्ञ विशाल तभी,
हुए परसन्न सभी दैव गण,
पिनाक दिया देवरते प्रसण,(104)
*(पिनाक धनुष का वर्णन)*
*(छंद-गोषो)*
घोर नाद घुघवाट,
काळझाळ कोप काट,
शोभनिय सज्जवाट,
मेघ तोड तोड़ घाट,
तीर लेव टंकराट,
शक्ति मीत सुरसराट,
दाळवे असुर दाट,
हे पिनाक हे विराट,हे पिनाक हे विराट(1-105)
बखाण वेग धार बट्ट,
स्वर्ग पे तीराय सट्ट,
दैव लोक ढाक दट्ट,
काट दैत मार कट्ट,
प्राछटे पछाड पट्ट,
घुघवे तिखार घट्ट,
झारवे अगन्न झट्ट,
वारणा पिनाक वट्ट,वारणा पिनाक वट्ट(2-106)
विकट पे दटक वट्ट,
आँधिये अटक अट्ट,
ध्येय पे दुकाळ दट्ट,
फ़ेण जो फैलावे फट्ट,
झट पट के झपट्ट,
खोरवे खेलाण खट्ट,
त्राड दे तोमर तट्ट,
हाकोटे पिनाक हट्ट,हाकोटे पिनाक हट्ट (3-107)
प्रबल प्रतापीय और सबळ,
अतुट अरम्य अलभ्यक बळ,
उठाव सके न कोई शुरवीर,
बड़े बलवान हुए अध वीर,(108)
प्रतिज्ञा कीनो मिथलाय नरेश,
चढाव प्रत्यंचा धनुष वरेश,
विवाह किता वीर संग सीता,
स्वयंवर मे वधु दान दिता,(109)
चले रघुवीर मनो धर बात,
किये अवलोकन सृस्टि सखात,
किये स्नान शोण नदीमें सभेय,
संध्याकाल ध्यान किनोय सुरेय,(110)
(अगले दिन नित्यक्रम से भगवान सूर्य नारायण का पूजा पाठ करके दोनो भ्राता और ऋषि आगे की और चल पड़े)
मनोरम तट परे रघुराम,
हुई मध्याह्न कियो विश्राम,
अतूल सरिता उजागर नीर
नीलाय सलील प्रकृत समीर,(111)
हुए मंत्र मुग्ध श्री रामाय मन्न,
दिठे फूल फोरम छाव चमन्न,
किते विसराम पूछि एक बात,
कथा काहू होवत ये अखियात,(112)
ऋषि कह बात कथाय सु गंग,
पुराणी प्रगट्टा नमामी सुरंग,
प्रसिद्ध प्रमाणि सुरा तारनार,
महावेद माही बनी गुणीसार,(113)
हिमालय पुत्री उमा गंग नार,
मति मन एक अलग अपार,
उमातप जाप कीनो महादेव,
घूमी सुरलोक भगीरथी सेव,(114)
सुणे कह राम काहूभेद गंग,
धरे उतरण कबे कहु रंग,
सुरालोक मेय विहारत बेय,
मिलाप कितेय धरा उतरेय,(115)
~|| धरती पर गंगा का अवतरण ||~
अयोधा मही सुख राज होवत सगर नामक नृप हो,
पत्नी विदर्भी केशिनी पर पुत्र नहवे हीन हो,
धर्मान्त सत्यं धरण चित्तम रूपवंती नारथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी,(1-116)
सुमिता हूती अर्धांग दूजी पुत्र नाही एकली,
सह केशिनी मन अड़ग ध्यानम पति संगे दो चली,
भृगुपरसवण गए जाप किन्नो वरद लिन्नो प्रारथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी(2-117)
वर एक दीन्नो पुत्र उजळो उजागर कुळ आगते,
दिन्नो दूजो वर पुत्र साठ हजार धर कूख त्यागते,
निश्चय लिनो एक को की कुण धर एक उरथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी(3-118)
कूख केशिनी के जन्म धारण दुष्ट ई असमझ्झ थ्यो,
सुमिताय कुखे एक तुंबो साठ पुत्रे सज्ज थ्यो,
पोषण कियो लिए कुम्भ घी में सुख लिए परमार्थी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी(4-119)
सूत जेष्ठ यौवन समय काले दुष्ट मन धर आकरो,
कर बाल लघु को नाखिया सरयू सरिता मा फरो,
इण दुष्ट कारण सगर काढत राज बारे त्यारथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी(5-120)
(असमझ्झ को अंशुमान नाम का एक पुत्र था। अंशुमान अत्यंत सदाचारी और पराक्रमी था। एक दिन राजा सगर के मन में अश्वमेघ यज्ञ करवाने का विचार आया। शीघ्र ही उन्होंने अपने इस विचार को कार्यरूप में परिणित कर दिया।”)
किये अश्वमेघन यज्ञ राजन अश्व छोडत धर परे,
रक्षाय काजन अंशुमन हरीतिमायुक्तन दळ धरे,
मद भान भूल्यो इन्द्र चोरत अश्व राक्षस रूपथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी(6-121)
क्रोधी बनी किये सगर आदेश पुत्र साठ हजार को,
ले आव पातक को धरा अम यज्ञ कज संहार को,
त्रिलोक नही कही मिले पातक धरण खोदत वारथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी,(7-122)
पाताल गए जब साठ पुत्रा निरख मुनि तप जापता,
मुनि कपिल पासत अश्व बांधे ध्यान गगने व्यापता,
अणसमज मन धर साठ पुत्रा भंग तप कियो खारथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी,(8-123)
क्रोधि बने मुनि निरख दोषी भंग तप कियो पातके,
जारीय किन्नौ भष्म तन तब ज्वाल अगन वहावके,
तद अंशुमान सु अश्व शोधन गए गुफावट द्वारथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी,(9-124)
तन मन भयो दुख अतीय अंशुमन क्षोभ लावत उर महि,
निश्चय किन्नो मोक्ष कारण साठ भ्राता जल त्यही,
ब्रह्मा तणो तप ख़ूब किन्नो ध्यान वर बाता कथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी,(10-125)
धर एक अंगूठेय कियो अडग तप शिव मन लियो,
परसन्न किते शिव मांग वर हर गंग धर पर लावियो,
मद मान चकचूर भान गंगा धरण रूप जल त्यारथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी(11-126)
पटकई धरण मन टेक शिव तन वेग जलमें वाहना,
महादेव खोलत जटा जकड़े गंग मन कट ध्यावना,
जल विलीन देखत राज भगीरथ तप कीनो तब फेरथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी(12-127)
वहती करी अभिमान चूर कर सात भागे भामणे,
त्रि भाग ह्रादिनी छोड़ के नलिनीय पावनी
नामणे,
सिंधु सुचक्षी और सीता पच्छिमें भवतारथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी(11-128)
भगीरथ चले त्यही सप्त भागम गंग चलती जा रही,
कर पावना सब मुक्त मुनि गण दोष दारत जल ग्रही,
वही जह्नू यज्ञ विखेर कर तप भंग करियो खारथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी(12-129)
क्रोधी हुए मुनि त्याग तप जप गंग जल घट पी गये,
संसार मुनि सब विनव जह्नु मोक्ष कज आधार ये,
किरपा कीये मुनि नाथ छोड़ी गंग कर्णो द्वारथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी(13-130)
गयी गंग भगीरथ संग सर कज रसातल उद्धार को,
किये मोक्ष साठ हजार को दिए स्वर्ग स्थान सुधार को,
जय जाह्नवी मीत नमन तुजने त्रिपथगा भागीरथी,
पापो हरण कज वरण जल धर अवतरी भागीरथी(13-131)
(तबसे गंगा नदी जाह्नवी,त्रिपथगा,और भागीरथी नाम से जानी गयी,)
कहे ऋषि राजन राम को येह,
कपिलाश्रम पावत गंग सु नेह,
भगीरथ पर ब्रह्माय प्रसन्न,
दिने वरदान पुण्याय व्रसन्न,(132)
करे स्नान के ध्यान पावत सुख,
हरे पाप को श्राप कापत दु:ख,
दरे हर दुख सिधावेय स्वर्ग,
पूजात सभेय कल्याण संवर्ग,(133)
जनकपुरी में आगमन
(दूसरे दिन ऋषि विश्वामित्र ने अपनी मण्डली के साथ प्रातःकाल ही जनकपुरी के लिए प्रस्थान किया। चलते-चलते वे विशाला नगरी में पहुँचे)
प्रवेश किनोय नगर महान,
हुए प्रफुलित सुवच्छ उधान,
सुगंध मनोरम नास लिएय,
जुवेय धराय गुणी गुणवेय,(134)
अलौकिक तेज प्रगट्ट हुवो,
सूरा स्वर मंत्र ध्वनीय जुवो,
जपे जाप नाम ऋषि मुनि गान,
प्रभु परणाम प्रभु परणाम,(135)
कहे राम मानंस मोहित गान,
करावत मंत्र सु यज्ञ विद्वान,
धरि चित्त ध्यान उभे रघुराम,
जपे मन्न जाप वेदाय तमाम,(136)
(छप्पय)
जनक पूरी की ज्योत,जनक राजा ने जाणी,
ऋषि मुनि संग राम, पधारे पूण्य प्रमाणी,
सतानंद रह साथ,जनक पहुचे ले हथ जल,
दरसण काजे दोट,दाखते सब जनजन दल,
अयोधया से आविया,रघुवीरा मुनि संगराम,
धनुष यज्ञ को मनधरण,सावल रूप धर श्याम(137)
नमन किये मुनि नाथ,किया नृप जनक जोड़ कर,
पतित किये पावंन्न,धरण पर चरणा पद धर,
बहुबल धारत बाल,निरख्या जनके नयणा,
कहे कुण रूप कान,कुळ कहीराजन कयणा,
अयोधया से आविया,रघुवीरा मुनि संगराम,
धनुष यज्ञ को मनधरण,सावल रूप धर श्याम,(138)
गावत मुनि गण गान,राम लछमन के रुडे,
वीर शौर्य बलवाण,काढ़ हर पातक कुडे,
हणीया धरि हथियार,मारीच सुबाहु मारण,
काट मिटावण केर,तड़का नार को जारण,
अयोधया से आविया,रघुवीरा मुनि संगराम,
धनुष यज्ञ को मनधरण,सावल रूप धर श्याम,(139)
विनम्र अति गुणवान,शुभ चिंतक सेवकमें,
मन मोहन है मीत,मुनि गण के सब मनमे,
शस्त्र प्रदाने ,साय,किये मुझ यज्ञ काज में,
दारे महाकाय दैत,जयो जय कार जगत में,
अयोधया से आविया,रघुवीरा मुनि संगराम,
धनुष यज्ञ को मनधरण,सावल रूप धर श्याम,(140)
*(विश्वामित्र ने कहा,:अपने सद्व्यवहार, विनम्रता एवं सौहार्द से इन्होंने आश्रम में रहने वाले समस्त ऋषि मुनियों का मन मोह लिया है। आपके इस महान धनुषयज्ञ का उत्सव दिखाने के लिये मैं इन्हें यहाँ लाया हूँ।”)*
*(इस वृत्तान्त को सुन कर राजा जनक बहुत प्रसन्न हुये और उन सबके ठहरने के लिये यथोचित व्वयस्था कर दिया।)*
अहल्या की कथा
*(प्रातःकाल राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ मिथिलापुरी के वन उपवन आदि देखने के लिये निकले। एक उपवन में उन्होंने एक निर्जन स्थान देखा।)*
ऋषि लछमन सखा रघुवीर,
वने फरताय द्रसिय कुटीर,
एकांत कुटीर न मानव होय,
न होव ऋषि नाह गोचर कोइ,(141)
कथे ऋषिराजन बोधत राम,
ऋषि एक होवत गौतम नाम,
सखी अरधांग अहल्याय साथ,
कुटीर मही रह बेयु संगाथ,(142)
अनुपस्थित होवत ऋषि गौतम,
नदी स्नान नित हुतोय नियम,
तभै एक दिन पुरंदर आवत,
गौतम रूप तणो देह धारत,(143)
एकांत अहल्या कुटीर मही,
गए इंद्र कामन मोह चही,
करे याचना रूपवाण कु नार,
प्रणय समो मोह बेय अपार,(144)
अति अहंकार भर्यो मनमाय,
अहल्याय रूप तणो भरमाय,
कहे मन्न होवत इंद्र प्रसन्न,
जुवे रूप वान हुवेय मगन्न,(145)
मति भूल भान हुवे चक चूर,
कहे इंद्रराजन कामीय तुर,
सभी कुळ लाजन छोड़ दियाह
तभी ध्रमको धुळमे दाट लिया,(146)
मिलाप समाप किनोय अमाप,
अमाप कु जानत दैवन पाप,
पलायन होवत पातक झट्ट,
ऋषि गौतमा रूप कीनो कपट्ट(147)
द्रसे परते फरताय मुनि,
जुवे इंद्र जावत मग्न धुनि,
धरि रूप दूजो सरीखोय तन्न,
अति क्रोध भासत ऋषि नयन,(148)
अति क्रोध में मन्न होवे अगन्न,
गति काल की क्रुद्ध खीजे गगन्न,
दिनों श्राप इन्द्राय को नर नाह,
नही नार होवत मोह न चाह,(149)
कुटीर गए गौतमा क्रोध धार,
अहल्याय काज न लज्जा अपार,
मुनि क्रोध वश हुवे कु न दाख,
इति क्षण श्राप दिनों बन राख,(150)
कीनी याचना खूब भान भणी,
भीनी आंख में अश्रुय आव घणी,
दिसे पश्चाताप ऋषि सूज देव,
हुतो उद्धार सहस्त्र युगेव,(151)
*छप्पय*
अवतारी रघु आवत,तोड़न श्राप कठिन तुज,
अवतारी रघु आवत,पद छब राख चरण पूज,
अवतारी रघु आवत,धारण तन तुज पर धर,
अवतारी रघु आवत,विधाता सत्य करण वर,
अयोधया से आविये, ,रघुवीर मुनि संगराम,
तन श्रापित दन तरिया,सावल रूप मीत श्याम(152)
*(अहल्या का पश्चाताप देखकर गौतम मुनि ने अहल्या से कहा,तू हजारों वर्ष तक केवल हवा पीकर कष्ट उठाती हुई यहाँ राख में पड़ी रहे। जब राम इस वन में प्रवेश करेंगे तभी उनकी कृपा से तेरा उद्धार होगा। तभी तू अपना पूर्व शरीर धारण करके मेरे पास आ सकेगी,यह कह कर गौतम ऋषि इस आश्रम को छोड़कर हिमालय पर जाकर तपस्या करने चले गये। )*
*(विश्वा मित्र ने कथा के पश्चात कहा,,
हे राम! अब तुम आश्रम के अन्दर जाकर अहल्या का उद्धार करो।”)*
*(विश्वामित्र जी की आज्ञा पाकर वे दोनों भाई आश्रम के भीतर प्रविष्ट हुये। जब अहल्या की दृष्टि राम पर पड़ी तो उनके पवित्र दर्शन पाकर वह एक बार फिर सुन्दर नारी के रूप में दिखाई देने लगी। तत्पश्चात् उससे उचित आदर सत्कार ग्रहण कर वे मुनिराज के साथ पुनः मिथिला पुरी को लौट आये।)*
(वाल्मीकि रामायण के इंकावनवें सर्ग के श्लोक क्रंमाक 16 के अनुसारः)
|| - सा हि गौतमवाक्येन दुनिरीक्ष्या बभूव ह।
त्रयाणामपि लोकानां यावद् रामस्य दर्शनम्।
शापस्यान्तमुपागम्य तेषां दर्शनमागता-॥
(अर्थात- .रामचन्द्र के द्वारा देखे जाने के पूर्व, गौतम के शाप के कारण अहल्या का दर्शन तीनों लोकों के किसी भी प्राणी को होना दुर्लभ था। राम का दर्शन मिल जाने से जब उनके शाप का अन्त हो गया, तब वे उन सबको दिखाई देने लगीं)
फरे मिथिला राज में ऋषि राम,
बैठे पय पान कीनोय आराम,
सतानंद होवे प्रसन्न प्रभावित,
राम को बात ऋषि सु कथित,(153)
बड़े भागवाण हुवे तुव राम,
गुरु गुणवाण जिको बड़ो नाम,
प्रतापी पराक्रम वीर महान,
अतीत मही नृप होत विद्वान,(154)
प्रजापति पुत्र प्रजापति कुश,
कुशानाभ नाम हुवे पुत्र कुश,
प्रपौत्र प्रजापति गाधि गण्यो,
महा विश्वामित्र शूरोय जण्यो,,(155)
प्रवेश कीनो कुटिरा मही राज,
हुते ध्यान लीन वशिष्ट बिराज,
जुवे तद राह विश्वामित्र तेह,
जुवे ध्यान से आँख में सु प्रमेह,(156)
कीये नमवे शीश जोड़िय हाथ,
विवाणम बेठ वशिष्ट के साथ,
उच्चारित शब्द शुभा सुखकाज,
सखा सम दौउ मुखा स्मित सांज,(157)
धेनु आह्वान किया कज देख,
सजाव छ व्यंजन धर्म सू रेख,
गुणा रूप काज कियो धेनु काम,
वशिष्ट कु आज्ञार्थ होव तमाम,(158)
दिसे धेनु रूप चमत्कार भूप,
भयो मन प्राप्त इति क्षण भूप,
कहे सोहति धेनु द्वारेय भूप,
न सोहत वासिय वनेय भूप,(159)
वशिष्ट को आप सहस्त्र मुद्राण,
कीनो भूप धेनु तणो धनदाण,
इति सुण भासत मुनि वशिष्ट,
कहे राज जीव मुजी एक इष्ट,(160)
न देवात काम धेनु तुज राव,
कहे इति आश्रम की गुणराव,
तदे मन क्रोध भयो भूप रिष्ट,
मति चकचुर रह्यो नही शिष्ट,(161)
कहे मार के लाव धेनुय साथ,
सभी सैनिका गण मारत हाथ,
विवश हुई धेनु को मन आस,
वशिष्ठ रहोय मुनि मुज पास,(162)
वशिष्ट कहे गौ विवश है मन्न,
नही श्राप आप सकू उन दन्न,
इति क्षत्रिया कुळ होव महान,
नही श्राप पापित मुनि सभान,(163)
विवश धेनु कहे आज्ञा दो मुज,
सवे सैनिका भूप आपु हु सूज,
पतावट पार करू नष्ट राज,
करुय विनाश दळु सुख काज,(164)
*(विवश कामधेनु को वशिष्ट मुनि ने युद्ध करने की आज्ञा दे दी,उसके बाद काम धेनु ने अपना पूरा बल लगाके युद्ध के लिये तैयार हो गई,)*
*मनहर कवित*
*(कामधेनु ने क्या किया ?)*
क्रूरता की काया को बनायी ऐसी माया किया,
उत्पन्न सेनाको कर सेना से लड़ाया है,
लड़ी पूरी शौर्य साथ घड़ी सेना पड़ी माथे,
विश्वामित्र सेना उन्हें भोमे में दड़ाया है,
शक हुण बर्वराव यवन कांबोज किया,
नई सेना को भी उस युद्ध मे गड़ाया है,
लड़ी ऐसी खीज से की दड़ी फ़ौज चडी माथे,
कामधेनु शकत्ति सह युद्ध चकराया है,(165)
*(विश्वामित्र का सामना )*
अहंकार लिए अति युद्ध का सामना किया,
सेना गायु तणी माया पल में भगाई है,
कामधेनु तणी सेना झुकायी सामना दिया,
पार्थ कर्ण युद्ध जैसी अगन लगाई है,
पुत्र सो के कोप से लड़ाई मरे एक बचा
श्राप दिया वशिस्ट ने कीनी भरपाई है,
कुळ से कुळ को छेड़ा मति मुळ ध्यान किया,
राज पुत्र हाथ दिया दुख चोट खाई है,(166)
*(सेना तथा पुत्रों के के नष्ट हो जाने से विश्वामित्र बड़े दुःखी हुये। अपने बचे हुये पुत्र का राजतिलक कर वे तपस्या करने के लिये हिमालय की कन्दराओं में चले गये। वहाँ पर उन्होंने कठोर तपस्या की और महादेव जी को प्रसन्न कर लिया। महादेव जी को प्रसन्न पाकर विश्वामित्र ने उनसे समस्त दिव्य शक्तियों के साथ सम्पूर्ण धनुर्विद्या के ज्ञान का वरदान प्राप्त कर लिया।)*
*|| विश्वामित्र ओर वशिष्टमुनि का युद्ध ||*
भूप गयो भटकी,शस्त्र सर मुनिवर मारण,
भूप गयो भटकी,क्रोध कर अतिबल कारण,
भूप गयो भटकी,लगण मन युद्ध लगाई,
भूप गयो भटकी,सगण नही कदी झुकाई,
क्षत्रिय बल से थियो सज्ज,विश्वामित्र वन वीर,
शस्त्र सामने शास्त्रको,धरियो क्रोध अ धीर,(167)
अभिमाने अकळाय,उठायो अग्नि अस्त्र है,
मचीयो कुटिरा माय,सजायो तीर शस्त्र है,
द्रसिये भळका दोट,लगाये मुनिगण लोकन,
चिहकारी भर चोट,रक्त नही पावत रोकन,
अग्निअस्त्र से आटक्यो,घमासान युद्ध घोर,
बलसे कुटिरा बाळीयों ,शुरुवाती कर शोर,(168)
*(विश्वामित्रने जो प्रयोग किये परेशानी उद्भवित की जिन्हें वशिष्ठ जी ने अपने मारक अस्त्रों से मार्ग में ही नष्ट कर दिया। इस पर विश्वामित्र ने और भी अधिक क्रोधित होकर दूसरे अस्त्रों का भी उपयोग किया)*
क्रोधी अति कहर्यो,दण्ड और जूंभण दारण,
वज्र क्रोंच वहर्यो,धर्मचक्रा कर धारण,
विष्णु चक्र वायव्य,पाश वरुणा ब्रह्म पटके,
कालचक्र कंकाल,विधाधर काल से वटके,
मूसल मोहन मानवा,पीनाक धर कर पोगियो,
युद्ध करण क्रोधी अळ्यो,विश्वामित्र योगियों,(169)
*(विश्वामित्र के इस दुष्ट कृत्य के कारण,कुटीरा जल गई और सब ब्राह्मण गण भी दु:खी हो गए,सब नष्ट हो गया और ब्राह्मण बल को साबित करने के कारण और अहंकारी अभिमानी विश्वामित्र राजा को परास्त करने के लिए वशिष्ट मुनि ने अपनी विद्या से ब्रह्मास्त्र धारण कर लिया)*
जदो धर ब्रह्म तणो अस्त्र हाथ,
तदो भयकार मच्यो सुर साथ,
नभे अंधकार समी झर वीज,
सभे हितकार रिजावत खीज,(170)
खीजे मुनिराज कियो दुष्ट कोप,
हला मच जावत आग धरोप,
सभे रिजलावत मुनि को देव,
मने पछतावत भूप हृदेव,(171)
न खोवत जोवत आपत मान,
धरा पर जावत कोई न जान,
लियो परते अस्त्र ब्रह्म महान,
थियो भूप मीत हुवोय सुभान,(172)
*("पराजित होकर विश्वामित्र मणिहीन सर्प की भाँति पृथ्वी पर बैठ गये और सोचने लगे कि निःसन्देह क्षात्र बल से ब्रह्म बल ही श्रेष्ठ है। अब मैं तपस्या करके ब्राह्मण की पदवी और उसका तेज प्राप्त करूँगा। इस प्रकार विचार करके वे अपनी पत्नीसहित दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। उन्होंने तपस्या करते हुये अन्न का त्याग कर केवल फलों पर जीवन-यापन करना आरम्भ कर दिया। उनकी तपस्या से प्रन्न होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें राजर्षि का पद प्रदान किया। इस पद को प्राप्त करके भी, यह सोचकर कि ब्रह्मा जी ने मुझे केवल राजर्षि का ही पद दिया महर्षि-देवर्षि आदि का नहीँ, वे दुःखी ही हुये। वे विचार करने लगे कि मेरी तपस्या अब भी अपूर्ण है। मुझे एक बार फिर से घोर तपस्या करना चाहिये।”)*
~~~त्रिशंकु की स्वर्गयात्रा ~~~
*(त्रिशंकु की स्वर्ग यात्रा)*
*(चोपाई)*
कथा सतानंद कहत सु रामा,
राज त्रिशंकु हुवे कुल नामा,
इच्छा मन धर स्वर्ग सुहाना,
शरीर संग को स्वर्ग सिधाना,(173)
गए वशिष्टत पासत राजन,
बैठ त्रिशंकु कहे मुनिराजन,
इच्छा मन धर शरण तिहारे,
आव्यो काज सु व्योम विहारे,(174)
मुनि शब्द नह स्तब्ध किया,
नह शक्त न मुज कर दैव दिया,
नै कोई सजीव न जीवन जावे,
स्वर्ग मही नही कोई सिधावे,(175)
पुत्र वशिष्ट के पास गया भूप,
देखन यांचत वरं अनूपं,
पुत्र क्रोध मुख नाह किया,
वर माँगया तुज मुख नाह दिया,(176)
साठ पुत्र कह नाह दिनों वर,
मान दियो नही पिता चरण पर,
दुस्ट कियो अपमान पिताको,
वर दिन्नो नही तुज शरणाको,(177)
अति रुष्ट हुवो बाल परे भूप,
कथन कहा अप शबद कुरूपं,
बाल वशिष्ट हुवे क्रोधित जब,
दिए श्राप चांडाल कियो तब,(178)
हुवे कद दुष्टम भृष्ट गजा खून,
लहूलुहान तन बढ़े जो नाखून,
केश काल गिर पड़े विकारत,
मुख शोभा छिन गयी मु जारत,(179)
मंत्री गण सब भये निरख भूल,
कोई रहत नह पास लगी धूल,
चले गए सब छोड भुवन स्थल,
कोई रहे नही पास राव दल,(180)
*(फिर भी उन्होंने सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा का परित्याग नहीं किया। वे विश्वामित्र के पास जाकर बोले कि ऋषिराज! आप महान तपस्वी हैं। मेरी सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा को पूर्ण करके मुझे कृतार्थ कीजिये।)*
चढयो यज्ञ सु काज मुनि वर,
कहे शरण तू आयो मुज घर,
कृपा कीनो तुज पर हु राजा,
इच्छा मन तव पुरणे काजा,(181)
बैठ बुलाये पुत्र दिशा चौ,
संग संगिनी सखा सजन सौ,
कियो हवन आह्वान बुलाये,
अग्नि देव संमनुख प्रगटाये,(182)
मुनि दैव सौ पुत्र बुलाये,
सब संगे वो साठ न आये,
यजमानी चाण्डाल कियो यह,
यज्ञ नहीं अम पूण्य लगे तह,(183)
सुनत कर्ण यह बात ऋषिजी,
दैवत श्राप तिहि क्षण खीजी,
घोर कियो अपमान अनादर,
कालपाश सभै जाव सदी सर,(184)
(विश्वामित्र ने कहा,, मैं उन्हें शाप देता हूँ कि उन सबका नाश हो। आज ही वे सब कालपाश में बँध कर यमलोक को जायें और सात सौ वर्षों तक चाण्डाल योनि में विचरण करें। उन्हें खाने के लिये केवल कुत्ते का माँस मिले और सदैव कुरूप बने रहें। इस प्रकार शाप देकर वे यज्ञ की तैयारी में लग गये।”)
यज्ञ महि आह्वान,किया सब दैव कठनसे,
शाप नही समवान,रिझा नही मंत्र रटनसे,
गरल समा मुख वेण,दिनों क्रुद्धी दैवन को,
सरल रीत मम श्रेण,तपबल दिनों जन को,
जप भेजियो मंत्रा जपि,रयो नभ तरतो राव,
इंद्र लोक निरखे अजा,सहशरीर गत साव,(185)
इंद्र लोक यजमान,पहुच गया राव प्रसन्ना,
महा क्रोध महैराण,दिग्गज उन श्रापज दिन्ना,
परत हुवो तड़ीपार,पड्यो आकाश परेथी,
कर जोड़ी किलकार,धर्यो मुनि साद धरेथी,
अटक्यो शिर पर आकरों,त्रिशंकु तद थिर,
नह स्वर्गा धरती नही,धरि नही मन धीर,(186)
*छंद पध्धरी*
पटक्यो धरण श्रापे पछाळ,अटकई नभे उन्धे कपाळ,
सन्ताप ताप पीड़ा समुख,निरखि कथ्यों मम काट दुख,(187)
गुरु देख पीड़ जापत्त गान,मंत्रो ऊँचार मम बल महान
सर्जन कियो नव सर्ग सेज,इंद्रा भु लोक रह्यो न तेज,(188)
हाहकार होत चकचुर हाम,पोहचेय दैव मुनि कर प्रणाम,
विनवेय लोक इंद्राय धाम,तिहि माफ किन्नौ मुनि त्राहिमाम,(189)
मुनी त्राहिमाम मुनी त्राहिमाम,सुर साधत इंद्रा सह तमाम,
मुनि सुन बाता इंद्रा की मेख,रहियो मुज वचने राव रेख, (190)
गण रायो राखत मान गुण,सत बाते संतुष्टि सगुण,
मुनि कह रह रायो अमर मीत,नृप बन कर शाषन करत नित,(191)
(इन्द्र की बात सुन कर विश्वामित्र जी बोले कि मैंने इसे स्वर्ग भेजने का वचन दिया है इसलिये मेरे द्वारा बनाया गया यह स्वर्ग मण्डल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मण्डल में अमर होकर राज्य करेगा। इससे सन्तुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने अपने स्थानों को वापस चले गये।”)
*क्रमशः,,,,,,*
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