चारणने चरजुमां चाहत नथी,
डींगण- पींगळमां कंई समजातुं नथी...!
चारण बीजाने गमे ते बोली नाखशे,
पण पोतानाथी ऐज संभळातुं नथी....!
समाजमां शुं-शुं थाय छे ?,
ऐम तो पूछो के शुं थातुं नथी..!
पथ्थरो बोलो तो ठोकी मारीऐ,
आपणाथी फूल फेंकातुं नथी..!
आपणे रुपिया तो खचीॅ नाखीऐ,
आपणुं होवुं ज खचाॅतुं नथी...!
गाम आखा काज ताळी पाडीऐ,
कमबखत आपणा तरफ कोईनुं घ्यान होतुं नथी...!
सौनो साथे राखवानुं बोलीऐ छीऐ,
साचुं पूछो तो पांच भेगा थये
खंटातुं नथी....!
मनमां ने मनमां विचारीऐ छे के
सारुं करवुं.
जाहेरमां आव्या पछी कांई सुझतुं नथी...!
' चकमक ' हशे माँ करे ई खरुं, बाकी, ऐनी मरजी आगळ आपणुं कांई हालतुं नथी....!
जय माताजी.
कवि चकमक.
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