।। फुलडा नी फांट ।।
( कवि ने कोइ अगोचर शकित रोज फांट भरीने फुलडा आपे छे अने तेनाथी कविता गुंथी कवि जगत समक्ष रजु करे छे, ऐवा भावनु आ काव्य छे)
* आभ मा सुरज ज्यां उगे झळोहळ,
त्यां फुलडा नी भरीने फांट।
मारे रे आंगणे कोइ आवे मघमघतु,
शब्दो मा सौरभ नी छांट।
* एक रे पांदडी ने अडकी ज्यां आंगळी
कलम मारी कविता तरबोळ।
अक्षरे अक्षर मारा गीत थइ गुंजता।
शबदो मा सागर नी छोळ।
* ऐवा रे छोड मारा काळजा मा वावया,
जरीक ज्यां सींचुं तो थाय लुंबझुंब।
भीतर नी फोरम मने राखे हर्यो ने भर्यो,
कसुंबल कैफ थी मारा नेण रे घेघुंब।
* आतम नु फुल मारू अलबेली फोरम थी,
उघाडे अंतर नी आंख।
शब्द ना संगाथे हुं विचरू अगम मा,
पंथ रे निहाळुं त्यां फुटती रे पांख।
* विना ते मुल मने वाणी ना फुलडा, आपे छे रोज रे अमोल।
अंतर नुं बजे जंतर, सुरता शब्द साधे,
धारणा तो रहे मारी नाद मां अडोल।
* उजळा रे उजळा "जय" आखर ना ओरडा,
ऊभा जइ ऊंचेरा गगन ने घाट।
रोज रे रोज ऐवा निरमळ ने कोमळ सा,
फुलडा नी वेराती फांट।
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-कवि : जय।
- जयेशदान गढवी।
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