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29 अक्तूबर 2016

1857 का स्वतंत्र्य संग्राम और चारण साहित्य - डॉ. अंबादान रोहड़िया

1857 का स्वतंत्र्य संग्राम और चारणसाहित्य
रचनाकार : डॉ. अंबादान रोहड़िया 

प्रोफेसर, गुजराती विभाग 
सौराष्ट्र युनिवर्सिटी, राजकोट


        भारतीय इतिहास विषयक ग्रंथों का अवलोकन करने से एक बात सुस्पष्ट होती है कि हम भारत का प्रमाणभूत एवं क्रमबद्ध इतिहास प्रस्तुत करने में सफल नहीं रहे हैं। हमारे यहाँ इतिहास एवं पुरातत्व विषयक दस्तावेज़ों के जतन करने का कार्य यथोचित रूप से नहीं हुआ है। आज भी भारतीय साहित्य, इतिहास एवं संस्कृति विषयक अनेक बातें अप्रकट ही रही हैं। अतः आज भी इस क्षेत्र में विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है।

     इतिहासकार अक्सर दस्तावेज़ों को प्राधान्य देते हैं। किंतु जब दस्तावेज़ उपलब्ध न हो तब इतिहास विषयक जानकारी देने वाले स्रोत भी देखने चाहिए। हमारे यहाँ अनेक कृतियाँ अनैतिहासिक मानकर नज़र अंदाज की गई हैं। निसंदेह इस प्रकार की कृतियों में अतिरंजना और कल्पना विलास अवश्य मिलता है किंतु उनमें सुरक्षित इतिहास को हम नहीं भूल सकते हैं। उसमें इतिहास साथ-साथ है। इस प्रकार के काव्यों का परीक्षण कर यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि इनमें कहाँ तक ऐतिहासिक सत्य प्रकट हुआ है। क्या वह इतिहास के पुनर्लेखन में अप्रस्तुत कड़ियों को जोड़ने में सहायक बन सकता है या नहीं?

     भारत पर विदेशियों के आक्रमण की परंपरा सुदीर्घ नज़र आती है। अनेक विदेशी प्रजा यहाँ भारतीय प्रजा को परेशान करती रही है। इनमें ब्रितानियों ने समग्र भारतीय प्रजा और शासकों को अपनी गिरफ़्त में ले लिया था। भारतीय प्रजा को जब अपनी ग़ुलामी का अहसास हुआ तो उन्होंने यथाशक्ति, यथामति विदेशी हुकूमत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। इस आंदोलन की शुरुआत थी 1857 का प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम के प्रभावी संघर्षों तथा उनकी विफलता के कारणों के बारे में विपुल मात्रा मे ं ऐतिहासिक ग्रंथ लिखे जा चुके हैं। किंतु फिर भी, बहुत सी जानकारी, घटनाएँ, प्रसंग या व्यक्तियों के संदर्भ में ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। 1857 के संग्राम विषयक इतिहास की अप्रस्तुत कड़ियों को श्रृंखलाबद्ध करने हेतु इतिहास, साहित्य और परंपरा का ज्ञान तथा संशोधन की आवश्यकता है। इसके द्वारा ही सत्य के क़रीब पहुँचा जा सकता है। यहाँ 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में सहभागी चारण कवि कानदास महेडु की रचनाओं को प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है।

       भारत में व्यापार करने के लिए आकर सत्ता हासिल करने वाले ब्रितानियों ने अपनी विलक्षण बुद्धि प्रतिभा से यहाँ की प्रजा पर अत्याचार किया था। राजा और प्रजा को विभाजित करके शासन चलाने की कूटनीति उन्होंने अपनाई थी। मगर ब्रितानियों को चारणों की बलिष्ठ बानी का अच्छी तरह परिचय हो गया था क्योंकि ब्रितानियों की कुटिल नीति को यथार्थ रूप से समझने वाले चारण कवियों ने क्षत्रियों को सचेत करने के प्रयास किए थे। किंतु दुर्भाग्य से क्षत्रिय जिस तरह से मुस्लिमों के सामने संगठित न हो पाये उसी तरह ब्रितानियों की कूटनीति को भी समझ नहीं पाये। जोधपुर के राजकवि बांकीदास आशिया ने भारतेन्दु हरिशचंद्र से भी पूर्व सन् 1805 में अपनी राष्ट्रप्रीति और स्वतंत्रता प्रीति का परिचय कराते हुए कहा है कि

आयौं इंगरेज मूलक रै ऊपर, आहंस खेंची लीधां उरां 

धणियां मरे न दीधी धरां, धणियां उभा गई धरा...!

(ब्रितानियों ने हमारे देश पर आक्रमण कर सभी के हृदय में से हिम्मत छिन ली है। पहले के क्षत्रियों ने वीरता से शहीद होकर भी धरती नहीं दी, किन्तु आज के इन पृथ्वीपतियों की उपस्थिति में ही धरती शत्रु के अधिकार में चली गई।)

कविराज बांकीदाजी ने क्षत्रियों को उनके कुल की परंपरा की याद दिलाई कि, मातृभूमि पर आक्रमण होता हो, या नारी की इज्जत लूटी जा रही हो उस समय आप वीरता से लड़ते क्यों नहीं? अरे...! वर्षों से यहाँ बसे हुए मुस्लिमों की भी यह मातृभूमि है। अतः आपसी मतभेद भूलकर सबको एकजुट होकर प्रतिकार करना चाहिए देखिए-

महि जातां चीचातां महिला, ये दुय मरण तथा अवसाण;

राखो रे केहिकं रजपूती, मरद हिंदू के मुसलमाण...!

(जब मातृभूमि पर आक्रमण होता या अबला की इज्जत लूटी जा रही हो - ये दोनों समय वीरता से लड़ने के अवसर हैं। इस समय हिन्दुओं या मुसलमानों में कोई तो अपनी वीरता-क्षात्रव्रत प्रदर्शित कर प्रतिकार कीजिए।)

अलबत, पराधीनता जैसे सहज हो चुकी हो - उस तरह जोधपुर, जयपुर और उदयपुर जैसे बड़े-बड़े राजवीओं ने उदासीनता प्रदर्शित की। इतना ही नहीं ब्रितानियों की कूटनीति से प्रभावित राजवीओं ने सैन्य एवं शस्त्रों को भी छोड़ दिया और ब्रितानियों की शरण ली। इससे नारज कवि ने कहा कि,
पुर जोंधाण उदैपुर जैपुर, यह थाँरा खूटा परियाण;

औके गइ आबसी औके, बांके आसल किया बखाण...


(जोधपुर, उदयपुर और जयपुर के राजवी आपका वंश ही नामशेष हो गया। यह पृथ्वी पराधीन हो गई है, और जब अच्छा भविष्य होगा तब ही वापस आयेगी (स्वतंत्र होगी) बांकीदास ने यह उचित वर्णन किया है।)

इस तरह, स्वतंत्रता के चाहक कवि के द्वारा स्पष्ट रूप से कटु सत्य सुनाने के बावजूद भी अपेक्षित प्रभाव नहीं पड़ने पर निराश हुए कवि ने अंत में कृष्ण की प्रार्थना की है कि पंचाली की विकटबेला पर सहाय करने वाले हे द्वारकाधीश! ब्रितानियों का मुँह काला कर कलकत्ता पुनः वापस दिलाइए। इन क्षत्रियों की धरती का रक्षण कीजिए। इन ब्रितानियों के दलों ने हाहाकार मचा रखा है तब आप सबका रक्षण कीजिए, और आगे कहते हैं-
"भारखंड सामो भाली जे, वछां सुरभिया दिन वालीजे,

पाध बधा दासा पाली जे, गोपीवर टोपी गालीजे...! "

(हे गोपीवर हे द्वारिकाधीश आप कृपा कर भारत खंड पर अभी दृष्टि करें। गायों और बछड़ों के सुख के दिन वापस कीजिए (अर्थात् आप पुनः गोकुल में आएं) हिन्दुओं का पगड़ी बांधने वाले दासों का जतन कीजिए, और इन टोपीवाले (ब्रितानियों) का विनाश करें।)

बूंदी के राजकवि सूर्यमल्लजी वीर रस के अनन्य उपासक थे। किन्तु उस समय उनकी काव्यधारा रूपी भागीरथी को झेलने वाले कोई शंकर रूपी राजसी नहीं मिला। अतः आगम की संज्ञा परख चुके कवि ने वीरसतसई की रचना की किन्तु, योग्य प्रतिसाद नहीं मिलने से उसे अधूरी ही छोड़ दी।
कवि ने अपने राष्ट्रप्रेमी मित्रों को निजी तौर से पत्र लिखकर ब्रितानियों के काले कारनामों से वाकिफ किया था और सबको संगठित होने के लिए प्रेरित किया था। उनके द्वारा रचित काव्य वीरसतसई का यह दोहा तो राजस्थान और गुजरात में अति प्रसिद्ध हुआ है।

'इला ने देणी आपणी, हालरिये हलुराय;

पूत सिखावे पालणै, मरण बड़ाई माय,'

(क्षत्राणियाँ - माताएँ अपने पुत्रों को पालने में सुलाकर लोरी में ही वीरता का महत्व समझाती हैं और मातृभूमि कभी भी दुश्मनों को नहीं देने के लिए कहती हैं तथा वीर मृत्यु की महिमा दर्शाती हैं।)
अलबत, उस समय की विकट परिस्थिति में क्षत्रिय एक बनकर प्रतिकार नहीं कर सके, वीरता की बात सुनने, समझने और युद्ध भूमि में प्रतिकार करने की ताक़त खो बैठे हुए समाज को कवि ने उपालंभ रूपेण कटु जहर का पान तो करवाया लेकिन यह औषधि कामयाब न हुई। क्षत्राणी के मुख में रखी हुई इस उपालंभपूर्ण बानी में कवि की मनोवेदना प्रकट होती हुई नज़र आती है।

कंत धरै किम आविया, तेगां रो धण त्रास;

लहंगे मूझ लुकी जिए, बैरी रो न बिसास...!

(हे पतिदेव! आप दुश्मनों की तलवार के प्रहार के भय से डर कर घर आये हैं? यदि ऐसा है तो दुश्मनों का कोई भरोसा नहीं, आप मेरे वस्त्रों में छिप जाइए।)
ब्रिटिश जैसी विलक्षण प्रजा चारणों की कुल परंपरा और उनकी शबद शक्ति से वाफिक न हों यह संभव नहीं है। वे अच्छी तरह जानते थे कि क्षत्रियों को युद्धभूमि में केसरिया कराने वाले, अंतिमश्वास तक जीवन मूल्यों के जतन के लिए प्रयास करने वाले चारण ही हैं। अतः उन्होंने क्षत्रियों खासकर राजवीयों को चारणों से दूर करने की नीति अपनाई। उनको व्यभिचारी, विलासी और प्रजापीड़क बनाने के लिए अंग्रेजी शिक्षा का जहर पिलाया। राजा को राजकवि तथा प्रजा से विमुख बना दिया।
कूटनीतिज्ञ ब्रितानियों ने राजा और प्रजा दोनों को लूटने की नीति अपनाई। अतः शंकरदान सामोर ने बहुस्पष्ट रूप से ब्रितानियों की नीति खुली कर दी है।
महल लूटण मोकला, चढया सुण्या चंगेझ;

लूटण झूंपा लालची, आया बस अंगरेज,

(भारतवर्ष पर चंगेजखान जैसे अनेक दुश्मन इसके पूर्व आये और उन्होंने राजमहलों में लूट चलाई है। किन्तु गरीबों को लूटने के लालची केवल ब्रिटिश ही है।)

1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में कविराज शंकरदान सामोर ने लोककवि बनकर पूरे राजस्थान का ध्यान आकर्षित किया। उस समय बीकानेर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा और जयपुर जैसे बड़े राज्यों ने हिम्मत प्रदर्शित नहीं की, किन्तु शंकरदानजी ने अपना चारणधर्म अदा करते हुए स्पष्ट रूप से सरेआम मशालजी का काम किया उन्होंने बीकानेर के सरदारसिंह राठौड़ को उपालंभ दिया कि,
"देख मरे हित देस रे, पेख सचो राजपूत;

सिरदरा तोनै सदा, कहसी जगत कपूत"

(जो मातृभूमि के मानार्थ शहीद होता है वही सच्चा राजपूत है, किन्तु हे देशद्रोही सरदारसिंह राठोड़ आपको तो सभी कपूत के रूप में ही पहचानेंगे।)
"लाज न करे चोडेह लड, देस बचावण दिन;

बलिदानां बिन बावला, राजवट कदी रहे न... "

(हे सरदारसिंह तुम अभी भी समय को पहचान कर नारी की तरह डरना, लजाना छोड़कर खुलेआम मैदान में आ जाओ। यह समय तो देश को बचाने का है। अरे मूर्ख राजवट क्षत्रियवट बलिदान के बिना कभी नहीं रहती है।)
भरतपुर के वीरों ने दर्शाये हुए अप्रतिम शौर्य की प्रशंसा करता हुआ यह काव्य तो लोकगीत बनकर पूरे राजस्थान में प्रसिद्ध हुआ था।
" फिरंगा तणी अणवा फजेत, करवानै कस कस करम;

जण जण बण जंगजीत, लडया ओ धरा लाडला"

(फिरंगीयो-ब्रितानियों की फजीहत, पराजित करने हेतु एक-एक शूरवीरों ने कमर कसी और युद्ध में कूद पडे। इस धरा के लाडले ऐसे एक-एक वीर संग्रामजीत योद्धा बन लड़े।)
भरतपुर की भव्य शहादत की तारीफ करते हुए कवि ने मानो ब्रितानियों को चेतावनी दी कि तुम्हारी सत्ता अब यहाँ नहीं चलेगी। अतः तुम वापस जाओ। कवि ने भरतपुर के राजवी को दशरथ नंदन कह कर देशप्रेम का लोक हृदय में कैसा स्थान होता है यह दर्शाया है, देखिए:
" गोरा हटजया भरतपुर गढ बांको,

नंहुं चालेलो किलै माथै बस थांको;
मत जांणिजे लडै रै छोरो जाटां को;
ओतो कुंवर लडै रे दसरथ जांको,"

(हे गोरे ब्रितानियों यहाँ से तुम वापस चले जाओ, क्योंकि भरतपुर का गढ़ किला अजेय है। उस पर भी तुम्हारा प्रभाव नहीं पड़ेगा। तुम यह मत मानना कि तुम्हारे विरूद्ध मात्र जाट योद्धा ही लड़ते है। वे तो दशरथनंदन ऐसे भगवान राम ही हैं।)
भरतपुर और अन्य राज्यों में व्याप्त क्रान्ति की ज्वाला शांत पड़ने लगी है। अतः कवि ने इस अवसर का स्वागत कर देश को आजादी दिलाने के लिए सबको उत्प्रेरित किया, फिर कभी ऐसा मौका नहीं मिलेगा-ऐसा भी कहा। किन्तु भारतवर्ष की गुलामी की जंजीरें टूटी नहीं थी। इस बात पर समाज ने गौर नहीं किया था यथा-
" आयो अवसर आज, प्रजा पख पुराण पालग;

आयो अवसर आज, गरब गोरा रो गालण;
आयो अवसर आज, रीत राखण हिंदवांणी;
आयो अवसर आज, रण खाग बजाणी;
काल हिरण चूक्या कटक, पाछो काल न पावसी,
आजाद हिन्द करवा अवर, अवसर इस्यो न आवसी,"

(आज प्रजा का रक्षक बनकर उसका निर्वाह करने का अवसर आया है। आज तो इन गोरे ब्रितानियों के अपराजित होने के अभियान को दूर करने का अवसर आया है। आज तो हिन्दुओं के कुल की परंपरा और नीति-रीति बनाये रखने का समय आया है। आज तो युद्धभूमि में वीरता से तलवार घुमाने का अवसर आया है। आज इस पल का लाभ लेना सैनिक चूक जायेंगे तो फिर ऐसा समय नहीं आएगा। हिन्दुस्तान को आजाद करने के लिए ऐसा अवसर फिर कभी भी नहीं मिलेगा। इसीलिए सब वीरता से लड़ लीजिए।)
कविराज शंकरदान सामोर की काव्यबानी में लोगों को शस्त्र की ताकत का दर्शन हो यह बात स्वाभाविक है। राष्ट्रप्रेमियों के लिए शंकरदान सामोर के गीत कुसुमवत् कोमल थे मगर देशद्रोहियों के लिए तो वह बंदूक की गोली समान है। इसीलिए तो किसी ने कहा है कि -
' संकरिये सामोर रा, गोली हंदा गीत;

मितर सच्चा मुलक रा, रिपुवां उल्टी रीत'

(कविराज शंकरदान सामोर के गीत तो बंदूक की गोली जैसे हैं। वह देशप्रेमियों के लिए मित्रवत है। लेकिन देशद्रोहियों के वह कट्टर दुश्मन है।)

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