अक्कल वघीने वघ्या वेर...!
कवि काग बापुनी आ कविता छे तेना केटलाक अंशो सांप्रत समयने अनुरुप होई रजु करुं छुं.
'' सतीया जागो स्मशानथी सुणो तमे घरतीनी घा,
चडाव्युं जगने कोणे चाकडे ?
धरोधर लागी छे ला !
गरीब मटया ने थया लखेसरी,
पण टळी गई गरीबीनी ले'र
भोजन मळ्यां, भूखुं वघी पडी,
संत मळ्ये वघ्या संताप !
सूरज उग्योने कां अंघकार छे ?
विघा मळी ने विनय नो मळ्यो,
जरा मळी जोबनियाने धेर !
वनमां गयो त्यां व्याघि सामी मळी,
अक्कल वघीने वघ्या वेर !
जे प्रकाश अापणी आंखोना दीवाने होलवी नाखे ते आपणी माटे अंघकार छे.
आपणे जागृत बनीऐ ते ज दिवसने उगेलो समजवो.
जे केळवणी जीवनना संधषॅ माटे सज्ज थवामां सहाय आपती नथी. चारित्र्यनी शकितने, लोक कल्याणनी भावनाने, संस्कारने खीलवती नथी ऐ केळवणी गणाय ?
वतॅमान युगमां Electronic equipment ना वघु पडता उपयोगने कारणे तेमज सोशियल मिडीयाना अविवेकी उपयोगने लीघे उपरछल्ली रीते ऐक व्यकित अन्य व्यकित साथे संकळायेली देखाय छे परंतु अन्य व्यकितना मन सुघी पहोंचवामां ते निष्फळ बने छे.
दुनियानी समक्ष ते artificial smile आपे छे परंतु ऐकांतमां अल्प मनोबळना कारणे क्षुब्घ बनी जतो जणाय छे.
तो द्दढ मनोबळवाळी व्यकितओऐ सामुहिकपणे समाजने निराशा हताशानी उंडी खीणमांथी उगारी लेवानी झूंबेश आदरवानी सखत जरुरीयात वताॅई रही छे.
जय माताजी.
प्रस्तुति कवि चकमक.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें