मरु छुं जेने मळवा तेनु मुख ना हुं देखु ।
डरु छुं जेना थी ऐतो रोज सामो थाय छे ॥
छुटवा जेना थी भागु छोडे ई ना छेडो ।
दोडु जेनी पाछळ ते दूर भागी जाय छे ॥
अमृत नु काने सांभळ्यु छे नाम खाली ।
बाकी उगाडी आंखे जेर ज देखाय छे ॥
'माणेक' पारसमणि क्यांय देखाती नथी ।
अहीं चमकती चिरोडी मां मन छेतराय छे ॥
कवि :- माणेक गढवी (जसाणी ) (जरपरा-मुंद्रा)
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