. || सुरविर नी समसेर ||
. रचना : जोगीदान गढवी (चडीया)
बघडाटी रण बोलती, वट भर लेती वेर
जुवो रडे छे जोगडा, सुरविर नी समसेर
दशमन माथे दपटती, काळ व्रते जो केर
जो मुंगी थई जोगडा, सुरविर नी समसेर
धरम हीणा ने घरबती, ढुंढ तणो कर ढेर
जंपी गई कां जोगडा, सुरविर नी समसेर
अधरम जे नर आचरे, खलक न ऐनी खेर
जोवा मळे न जोगडा, सुरविर नी समसेर
मान हणें मा भोम नुं, एने, ठेकी करती ठेर
जंग लगी ई जोगडा,(हवे)सुरविर नी समसेर
हमची खुंदण हालती,(जई) घुसती दुशमन घेर
जडे हवे ना जोगडा, (ई) सुरविर नी समसेर
मरद कटावे माथडां, (अने)पडे कदी ना पेर
जुकवा मांडी जोगडा, सुरविर नी समसेर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें