।। आवइ अषाढी बीज।।
*सेण संभरे, सजण संभरे, रूदे संभरे रीज।
बाबीणी संभरे बोली, आवइ अषाढी बीज।
( स्नेही, स्वजन, स्नेह और कच्छी भाषा याद आ रही है, क्योंकि आज अषाढी बीज है)
* वर्यो लाखो वरे वारी, देव रा हीन डी ज।
धरती के धरो करायें, आवइ अषाढी बीज।
( कच्छ का देवदूत जैसा राजा लाखा फुलाणी ने आज ही के दिन कच्छ में पुनः प्रवेश किया था, और धरा को तृप्त करने वाली बरसात हुई थी, वही अषाढी बीज आज सै)
* परदेशे में पण संभरे, निढपण वलो नीज।
कच्छडे ते कुलभान अइयां, आवइ अषाढी बीज।
( परदेश में भी अपना प्यारा बचपन याद आता है, तब कच्छ की धरौधरती के सबकुछ कुर्बान करने को जी चाहता है, आज वही अषाढी बीज है।)
* अच मीठडा, गोठ मुजे , भीजाय मुके तुं भीज।
जुनी गाल्युं जाध करीयुं, आवइ अषाढी बीज।
( है! स्नेही आज मेरे गांव में आजा, मुझे भी भीगो दे, खुद भी भीग जा, पुरानी बातें याद करेंगे , आज अषाढी बीज है)
* "जय" कवि जे जिगर जी, हरि अरजी ही ज।
मीं वरसाये मुजे मुलक ते, आवइ अषाढी बीज।
( है! परमात्मा कवि "जय" आज यही विनंती करता है , कि अब मेरे कच्छ पर बारिश बरशा दे, अब तो अषाढी बीज आ गई है)
***** कच्छी नुतन वर्ष की बहुत बहुत शुभकामनाएं*****
- कवि: जय।
- जयेशदान गढवी।
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