लखुं छुं...!
नथी रोग मने कवितानो के साहित्यनो,
बस, तमने आनंद कराववा लखुं छुं...!
हतो कंईक थई गयो छुं ऐ वहेम,
ऐ वहेमने भूलवा लखुं छुं...!
हुं चारण समाजनी चरणनी रज छुं,
ऐ समजाया पछी लखुं छुं...!
चारण समाजमां आवी छे चारणत्वनी ओट,
ऐ ओटने भरतीमां फेरववा लखुं छुं...!
कोईना डर विना लखवानुं माघ्यम मळ्युं छे,
तो युवामित्रोने साची समजण आपवा लखुं छुं...!
नथी जोईतुं कंई, पद पतिष्ठा, मिलकत के मंच,
मारा निजानंदने पोषवा लखुं छुं...!
स्वजनो, मित्रोने गमशे त्यां सुघी लखीश,
न गमे तो तत्काळ राजीनामुं लखुं छुं...!
'' चकमक '' लखतो रहेशे जीवनभर,
ऐ आशा साथे अा अरमान लखुं छुं...!
जय माताजी.
कवि चकमक.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें