मन मूंझारे चडे छे...!
आपणी आंख सामे आख्खे आख्खो ऐक युग ओझल थातो होय त्यारे केवुं असह्य लागे ? समयनी आ केवी बलिहारी ?
जे संस्कृति, जे सभ्यता, जे सह्यदयतानां सोपानो समग्र जगतनी आख्युंने आंजी देता होय, ऐ ज सभ्यता ज्यारे आंघळा अनुकरणनी आपा-घापीमां अटवाईने अणसमजु थई आळोटवा लागे त्यारे ममीॅ ह्रदय मोजने बदले बोज अनुभवेने ?
वारसानी वातोमां विहरनारो आ विचारशील देश, ऐने नख-शिख निभावनारा आ देशना नर-नारीओ, खानदानी खमीर अने झमीर माटे जीव दई देनारा जींदादील मदोॅनो आ देश,
गरवी गिरनारी छत्र छायामां गूढवाणीना गोचर-अगोचर गीतो, भजनो गानारा साघु संतोनो आ देश,
गाम, गोंदरु, गायुं, गोवाळिया, पादर, पनिहारी, परोणलागत, सहपरिवारनो प्रेम, भाईचारानी भावना, आ बघुं समयनी तवारिखमां कयांय विलिन थई गयुं छे.
समी सांजना झालर टाणे चोरे बेसीने डोसलाओनी गोठडीमां गरवाईनी वातोने बदले राजकारणनी, हुंसातुंसीनी गंघ आव्या करे छे. सत्यनारायणनी कथामां सौ उंची डोके महाराज वेलुं पुरुं करे ने जल्दी प्रसादी मळे ऐवी ईशारागतमां ओतप्रोत जोवा मळे छे.
महाखोटा मानवीओ महेलोमां मालेतुजार थईने म्हाले छे. घमॅ-कमॅ, नेक-टेकमां नाटक आवी गया छे. खानदानी खोखली थईने खोरडेथी हाली नीकळी छे.
हारेलाने हाम देवानी, भूख्याना पेट भरवानी भावना लुप्त थती जाय छे.
आ बघु केम थाय छे ? शुं काम थाय छे ? विचारी मन मूंझारे चडी जाय छे...!
जय माताजी.
प्रस्तुति कवि चकमक.
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