रे मन ! हवे तो शरम करो...!
चारण कुळमां अवतयाॅ
तो चारण थईने तो रहो,
दारु-मांस त्यजी दईने,
कंईक जोगमायाओथी तो डरो.
रे मन ! हवे तो शरम करो...!
तमे कोण छो ? केवी रीते जीववुं,
ऐ दिलावरी तो दिलमां घरो,
उमदा आचार-विचार राखो,
फगडण थई कां फरो ?
रे मन ! हवे तो शरम करो...!
स्वमानथी जीवो, स्वावलंबी बनो,
कोई यजमान बनावी याचक कां बनो,
घुणवा-घफवानुं बंघ करी,
अवगुणोनो तो त्याग करो,
रे मन ! हवे तो शरम करो...!
अज्ञानता, अजडता छोडी,
देवीपुत्र होव तो माँ नी उपासना तो करो,
माणसाईना संस्कार प्राप्त करी,
माणस न थई कां फावे ऐम फरो,
रे मन ! हवे तो शरम करो...!
'' चकमक '' महामूलो आ मानवदेह मळ्यो छे,
समाजमां उत्कषॅ तो करो,
भरममां रही बहु भटकया,
हवे तो साची राहे पांव घरो,
रे मन ! हवे तो शरम करो...!
जय माताजी.
कवि चकमक.
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