सुप्रभात जय माताजी 🌹🙏🏼🌹
कवि श्री पद्माकर कृत गंगा लहरी
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॥ दोहो ॥
हरि हर बिधिको सुमिरिके. ,काटहि कलूष कलेस.
कवि पद्माकर रचत हे ,गंगा लहरीहि बेस.
॥ कवित ॥
वहति बिरंचि भइ वामन पगन पर,
फेली फेली फिरि ईश शिषपें सुगथ की.
आई के जहान जन्हु जंघा लपटाय फिरि,
दीनन के लिन्हे दोर कीन्ही तीन पथ की .
कहे " पद्माकर " सू महिमा कहालो कहो,
गंगा नाम पायो सहि सबके अरथ की .
चार्यो फल फली फुली गह गही बह बही,
लह लही कीरति लता हे भगीरथ की ....१
कुरम पें कोल कोल हूपे शेष कुण्डली हे,
कुण्डली पे फबी फ़ेल सुफन हजार की.
कहे " पद्माकर " त्यो फन फर फबी हे भूमि,
भूमि पे फबी हे थिति रजत पहार की .
रजत पहार पर शम्भू सुर नायक हे,
सम्भू पर ज्योति जटाजूट सो अपार की.
सम्भू जटाजूट पर चन्द्र की छूटी हे छटा,
चन्द्र की छटान पे छटा हे गंगधार की....२
करम को मूल तन तन मूल जीव जग,
जीवन को मूल एक आनंद उघरि बो.
कहे " पद्माकर " सू आनंद को मूल राज,
राज मूल केवल प्रजाको भ्होन भरि बो.
प्रजा मूल अन्न सब अन्नन को मूल मेघ,
मेघन को मूल एक जग्य अनुसरि बो.
जग्यन को मूल धन धन मूल धर्म अरू,
धर्म मूल गंगाजल बिन्दु पान करि बो....३
सहज सुभाई आई एक महा पातकी की,
गंगा मया धोइ तुतो देह निज आप हे.
कहे " पद्माकर "सो महिमा महिमे भइ ,
महादेव देवन में बाठी थिर थाप हे.
जकसे रहे हे जम थकसे रहे हे दुत,
दुनि दुनि पापन की उठी तन ताप हे.
बांकी बही वाकी गति देखीके बिचित्र रहे,
चित्र केसे लिखे चित्र गुप्त चूपचाप हे....४
गंगा के चरित्र लखि भाखे जमराज एसे,
एरे चित्र गुप्त मेरे हुकम में कान दे.
कहे " पद्माकर " ये नरक निमुंद कर,
मुंद दरवाजन को तजि यह थान दे.
देख यह देव नदी कीन्हे सब देव याते,
दुतन बुलाय के बिदा के बेग मान दे.
फार डार फरदन राख रोज नामा कहु,
खाता खत जान दे वहि को वह जान दे ...५
जाने जिन हे न जग्य जोग जप जागरन,
जनम बितायो जग जापन को जोय के.ते.
कहे " पद्माकर "सु देवन के सेवन ते,
दूरि रहे पूर मति बे दरद होय के.
कुटील कुराही क्रूर कलही कलंकी कलि,
काल की कथान में रहे जे मति प्रोय के.
तेऊ विष्णु अंगन मे बेठे सूर संगन मे,
गंगा के तरंगन में अंगनको धोय के.....६
जेसे ते न मोको कहू नेक हू डरात हूतो,
एसो अब व्हे हू तोहि नेक हु न डरि हो.
कहे " पद्माकर " प्रचंड झो परे गोताऊ,
मंड करि तोसो भुज दंड ठोकि लरि हो.
चलो चलि चलो चलि बीचलन बीच हुते,
किंच बिच निच तो कुटुंब को कचरि हो.
एरे दगा दार मेरे पातग अपार तोही,
गंगा की क छार में पछार छार करि हो ...७
पायो जिन तेरी धोरी धारामें धसत पात,
तिनको न होत सूर पूर ते निपात हे.
कहे " पद्माकर " तिहारो नाम जाके मुख,
ताके मुख अमृत को पुंज सरसात हे.
तेरो तोय छ्रोकरि छुटत तन जाको पात,
तिनकी चले न जम लोकन में बात हे.
जहा जहा मया धुरि तेरि ऊडी जात गंगा,
तहा तहा पापन की धुरि ऊडी जात हे ...८
जमपूर द्वारे लगे तिनमे किवारे कोऊ,
हे न रखवारे एसे वन के उजारे हे.
कहे " पद्माकर " तिहारे प्रन धारे तेऊ ,
करि अघ भारे सूर लोक कोसी धारे हे.
सुजन सुखारे करे पुन्य उजियारे अति,
पतित कतारे भव सिंधु ते उतारे हे.
काहुने न तारे तिन्हे गंगा तुम तारे अरु,
जेते तुम तारे ते ते नभ में न तारे हे....९
विधि के कमंडल की सिद्धि हे प्रसिध्ध वही,
हरि पद पंकज प्रताप की नहर हे.
कहे " पद्माकर " गिरीश शिष मंडल के,
मुंडन की माल तत्तकाल अघहर हे.
भुपति भगीरथ के रथकी सु पुन्य पथ,
जन्हु जप जोग फल फेल की फहर हे.
छेम कीछ हर गंगा रावरि लहर कलि ,
काल को कहर जम जाल को जहर हे .....१०
सौजन्यः- संकलनः-
कवि श्री प्रवीणभाइ मधुडा श्री मोरारदान सुरताणीया
राजकोट मोरझर
M.no. M.no.
95109 95109 9979713765
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