*```कवी श्री पिंगळशीभाई पाताभाई नरेला रचित एक रचना```*
*चित चेत सिंहाना फीर नहीं आना , जगने आखर मर जाना*
दुहो :
हर विपति हाथसे , डर पर दारा दाम .
धर ईश्वर नित ध्यानमे , कर नेकी के काम .
*```छंद त्रिभंगी```*
कर नेकी करमसे डरपर धरसे , पाक नजरसे धर प्रिती.
जप नाम जीगरसे बाल उमरसे , जसले जरसे मन जीती .
गंभीर सागरसे रहे सबरसे , मिले उधरसे परवाना .
चित चेत सिंहाना फीर नहीं आना , जगने आखर मर जाना..||1||
मद ना कर मनमे मिथ्या धनमे , जोर बदनमे जोबनमे.
सुख हे न स्वपनमे जीवन जनमे , चपला धनमे छनछनमे.
तज वेर वतनमे द्रेश धरनमे नाहक ईनमे तरसाना .
चित चेत सिंहाना फीर नहीं आना , जगने आखर मर जाना..||2||
जुठा हे भाई बाप बडाई , जुठी माई माजाई .
जुठा पित्राई जुठ जमाई , जूठ लगाई ललचाई.
सब जूठ सगाई अंत जुदाई , देह जलाई समसाना .
चित चेत सिंहाना फीर नहीं आना , जगने आखर मर जाना..||3||
कोई अघिकारी भुजबलभारी कोउ अनारी अहंकारी .
कोउ तपधारी फल आहारी , कोउ विहारी वृतधारी .
त्रस्ना नहीं टारी रह्या भीखारी , अंत खुवारी उठ जाना .
चित चेत सिंहाना फीर नहीं आना , जगने आखर मर जाना..||4||
तज पाप पलीती असत अनीती , भ्रांती भीती अस्थिती .
सज न्याय सुनीति उत्तम रिती , प्रभू प्रतिति धर प्रिती .
ईन्द्री ले जातीसुख साबिती , गुण माहिती द्रढ ज्ञाना .
चित चेत सिंहाना फीर नहीं आना , जगने आखर मर जाना..||5||
दुनिया दो रंगी तरक तुरंगी , स्वार्थ संगी अेकंगी .
होजा सतसंगी दुर कुसंगी , ग्रहेन टंगी जम जंगी .
*पिंगल* सुप्रसंगी रचे उमंगी , छंद त्रिभंगी सरसाना .
चित चेत सिंहाना फीर नहीं आना , जगने आखर मर जाना..||6||
*रचियता :- कवि श्री पिंगळशीभाई पाताभा ई नरेला*
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