*तजुर्बा*
महेफिल-ऐ-खास से निकली तो तन्हाई से मिली!
बाजार-ऐ-मोहब्बत से गुजरी तो रुसवाई से मिली!
ऐ जिंदगी तेर हर सफ्फे पे श्याही का दाग क्युं है?
कुछ लिखा भी ना गया था और लिखाई सी मीली!
कुछ दुर तक तो चलती रही दामन-ऐ-यार थाम के!
फिर शब-ऐ-मिलन के वक्त ही क्युं जुदाई सी मीली?
अंदाज-ऐ-बयां कुछ युं रहाँ तजुर्बा-ऐ-उम्र-ऐ-दराज
कुछ अपने ही अपनो से"देव,चोट खाई सी मिली..
✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंदरा
कच्छ
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