कुल्फ़ी वाला
ख़ुद जलकर तपिस में ठंडक बेचने निकला था
एक उम्र दराज़ शख्स कुल्फ़ी बेचने निकला था
कुछ बोझ कुल्फ़ी का कुछ जिम्मेदारियों का था
आंखे थी धुँधली और कुछ उम्र का तकाज़ा था
नन्हें बच्चों की हँसी में वो ख़ुश हुआ करता था
मज़बूरी लिपटा फिर भी मुस्कुरा दिया करता था
ख़ुद अपने मासूम बच्चे घर पे छोड़ के जाता था
उनकी ख्वाईश पूरी करने उनसे ही दूर जाता था
एक कुल्फ़ी के लिए अपने बच्चों को तरसता था
रोते हुए दिल से वो शख्श आँसू को पी जाता था
थक हार के भी जब वो शाम को घर जाता था
बच्चों से छुपाकर दर्द वो हंसता नज़र आता था
फिर बिस्तर में लेटकर ख्वाबों में खो जाता था
'देव' हर शाम मरता वो सुबह जिंदा हो जाता था
✍️देव गढवी
नाना कपाया-मुंद्रा
कच्छ
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