जिधर देखता हूं उधर मैं ही मैं हूं
साहिल पर रहकर लहर देखता हूं
तूं सोचता हो ग़र,माज़ी को मेरे
में बिखरा हुआ सा,कल देखता हूँ
बना लूँ कहीँ आशियाना मगर मैं
नफरतों में डूबा ये शहर देखता हूँ
कहीं हसरतें,कहीं ख्वाहिशें और
कहीं पर है रोता,चमन देखता हूँ
तुझे दिखती है,खूबसूरत सी झीलें
मैं पानी में छुपता भंवर देखता हूँ
यकीं मान'देव',मुस्करा ना सकोगे
ग़र तुम देखलो गे,जो मैं देखता हूँ
✍🏻देव गढवी
नानाकपाया-मुंद्रा
कच्छ
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